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सत्यशासन-परीक्षा
६२-३. इन पंच स्कन्धोंमें पूर्व-पूर्वके चित्तक्षण उत्तरोत्तर चित्तक्षणोंको उपादानोपादेय रूपसे जन्म देते हैं । यद्यपि वे परस्पर भिन्न, निरन्वय, निरंश तथा प्रत्येक क्षणमें विनाश होनेवाले हैं फिर भी भ्रान्तिके कारण उनमें एकत्वका प्रत्यभिज्ञान होता है; इसे ही संस्काररूपसे वर्तमान होनेके कारण आत्मा कह देते हैं। वास्तव में वे भिन्न ही हैं।
अविद्या और तृष्णाके समाप्त हो जानेपर सन्तानकी पूर्ण उच्छित्ति होना मोक्ष है। काषाय चीवर धारण करना, सिर मुड़ाना, ब्रह्मचर्य पालन करना आदि मोक्षके उपाय हैं। ६४. मुमुक्षुको दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ये चार आर्यसत्य अवश्य जानना चाहिए।
दुःख चार प्रकारके हैं-सहज, शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक । क्षुधा, तृष्णा, काम, भय आदि सहज दुःख हैं; वात, पित्त और कफकी विषमतासे उत्पन्न होनेवाले शारीरिक दुःख हैं; धिक्कार, अवज्ञा तथा इच्छाविघातसे उत्पन्न होनेवाले मानसिक दुःख हैं तथा शीत, वायु, वज्रपात आदिसे उत्पन्न होनेवाले आगन्तुक दुःख हैं । इन दुःखोंसे युक्त चित्तक्षण संसारियोंके दुःख कहलाते हैं।
दुःखको उत्पन्न करनेवाले कर्मबन्धके कारण अविद्या और तृष्णा दुःखसमुदय है। वस्तुको याथात्म्य प्रतिपत्ति न होना अविद्या है, तथा इष्ट इन्द्रिय विषयोंको प्राप्त करनेकी तथा अनिष्ट इन्द्रिय विषयोंको दूर करनेकी इच्छा तृष्णा है।
अविद्या और तृष्णाका नाश हो जानेसे निरास्रव चित्तक्षण अथवा सन्तानोच्छित्ति रूप मोक्ष दुःखनिरोध है।
६ ५. मोक्षके कारण मार्गणा हैं । मार्गणाके आठ अंग हैं१. सम्यक्त्व
५. कर्म २. संज्ञा
६. अन्तर्व्यायाम ३. संज्ञी
७. आजीवस्थिति ४. वाक्काय
८. समाधि पदार्थोंका याथात्म्यदर्शन सम्यक्त्व है । वाचक शब्द संज्ञा तथा वाच्य अर्थ संज्ञी है । वचन और काय (शरीर)के कार्य वावकाय हैं। वायुधारणा अन्तायाम है। आयुपर्यन्त प्राणधारण करना आजीवस्थिति है। सब दुःख रूप है, सब क्षणिक है, सब निरात्मक है, सब शून्य है, इस तरहकी सत्यभावना समाधि है ।
भावनाके प्रकर्ष से अविद्या और तृष्णाका नाश हो जाता है। समस्त पदार्थोंका ज्ञान करानेवाले चित्तक्षण निरास्रव हो जाते हैं। यही योगिप्रत्यक्ष है। योगी आयुपर्यन्त उपासकोंको धर्मका उपदेश देकर अन्त में निर्वाणको प्राप्त कर लेता है।
___ आयुके समाप्त हो जानेपर दीपकके बुझ जानेके समान आत्माका अन्त हो जाना निर्वाण है । जिसप्रकार दीपक बुझनेपर न तो पृथ्वीको जाता है, न आकाशको, न किसी दिशाको और न किसी विदिशाको; प्रत्युत तेलके समाप्त हो जानेसे शान्त हो जाता है; इसी तरह निर्वाणको प्राप्त हुआ जीव न तो पृथ्वीको जाता है, न आकाशको, न किसी दिशाको और न विदिशाको प्रत्युत मोहके नाश हो जानेसे शान्त हो जाता है। [ उत्तरपक्ष ]
६६. उपर्युक्त बौद्ध सिद्धान्त प्रत्यक्ष विरुद्ध है । प्रत्यक्षसे निरन्वय, विनाशशील परमाणुका साक्षात्कार नहीं होता, इसके विपरीत स्थिर, स्थूल और साधारण आकारवाले घटादिका ही प्रत्यक्ष होता है ।
६७. यह मानना युक्तियुक्त नहीं कि अत्यन्त आसन्न और संसृष्ट परमाणुओंमें हो भ्रमसे स्थूल, स्थिर आदिका ज्ञान होता है; क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्षका प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्' यह लक्षण नहीं बनेगा।
६८. परमाणुओंमें भी यह लक्षण नहीं बनता।
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