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________________ प्रस्तावना [ङ ] पाठान्तर जैसा कि ऊपर पाठ-शुद्धि में लिखा जा चुका है–सम्पादनके लिए उपयोगमें लायी गयी तीनों प्रतियोंमें-से सर्वाधिक उपयुक्त पाठ मूलमें रखकर अन्य पाठोंको नीचे पाठान्तरोंमें दे दिया है। पाठान्तरोंके लिए अंग्रेजीके अंकोंका संकेत है। [इ] परिशिष्टइस संस्करणमें निम्नलिखित परिशिष्ट जोड़े गये हैं१. मूल ग्रन्थके पद्योंकी अनुक्रमणिका । २. मूल ग्रन्थमें उद्धृत वाक्योंकी अनुक्रमणिका । मूल ग्रन्थगत दार्शनिक तथा पारिभाषिक शब्द । ४. मूल तथा प्रस्तावनागत विशिष्ट शब्द । [२] ग्रन्थ-परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ मध्ययुगके महान् जैन तार्किक आचार्य विद्यानन्दिकी अपूर्व कृति है। इस संस्करणमें यह सर्वप्रथम प्रकाशमें आ रही है। नाम ग्रन्थके प्रारम्भमें ग्रन्थकारने एक अनुष्टुप् पद्यमें मंगलाचरण किया है तथा उस मंगल पद्यमें श्लेषसे अपने नामका भी संकेत कर दिया है । मंगल पद्य के बाद ग्रन्थका नाम 'सत्यशासन-परीक्षा' दिया है। 'सत्यशासन-परीक्षा' इस नाममें तीन शब्द है-सत्य, शासन और परीक्षा। इन तीनों शब्दोंकी व्याख्या विद्यानन्दिने स्वयं की है। वे लिखते हैं-सत्यका अर्थ है प्रत्यक्ष तथा अनुमान आदिसे बाधित न होना; शासनका अर्थ है विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदाय तथा परीक्षाका अर्थ है-यह धर्म इसवस्तुमें बनता है या नहीं संसारमें अनेक दार्शनिक सम्प्रदाय प्रचलित हैं, उनमें कौन सत्य हो सकता है, प्रस्तुत ग्रन्थमें इसी बातकी परीक्षा की गयी है । (६१-२) इस तरह 'सत्यशासन-परीक्षा' यह ग्रन्थका सार्थक नाम है। देखना यह है कि विद्यानन्दिने प्रस्तुत ग्रन्थका नाम 'सत्यशासन-परीक्षा' ही क्यों रखा, 'दर्शन-समीक्षा, 'सत्यदर्शन-समीक्षा' अथवा ऐसा ही और कोई दूसरा नाम भी तो हो सकता था ? वास्तविकता यह लगती है कि विद्यानन्दिके सामने ग्रन्थका नामकरण करते समय केवल ग्रन्थकी अन्वर्थताका ही प्रश्न नहीं था प्रत्युत पूर्व-परम्परा तथा नवनिर्माणका भी प्रश्न था । पूर्व-परम्परामें विद्यानन्दिके सामने परीक्षान्त नामवाले अनेक बौद्ध ग्रन्थ थे। दिग्नागकृत आलम्बनपरीक्षा व त्रिकालपरीक्षा; धर्मकोतिकृत संबन्धपरीक्षा; धर्मोत्तरकृत प्रमाणपरीक्षा आदि परीक्षान्त नामवाले बौद्धग्रन्थ प्रसिद्ध थे। इसके विपरीत जैनदर्शनका एक भी ग्रन्थ परीक्षान्त नामवाला नहीं था। इसलिए विद्यानन्दिके समक्ष जनसाहित्यकी परम्परामें एक नये नामकी पूर्तिका भी प्रश्न था । इसी कारण विद्यानन्दिने एक ओर जहाँ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री तथा युक्त्यनुशासनटीका नामक भाष्य ग्रन्थ लिखे वहीं प्रमाण-परीक्षा, पत्र-परीक्षा, आप्त-परीक्षा तथा सत्यशासन-परीक्षा परीक्षान्त नामवाले महत्त्वपूर्ण प्रकरणोंकी रचना की। बादके कतिपय अन्य जैनाचार्योने भी विद्यानन्दिके अनुकरणपर अन्य ग्रन्थ भी परीक्षान्त नामवाले लिखे। उदाहरणके लिए नव्यन्याय युगके महान विद्वान् उपाध्याय यशोविजयकी अध्यात्मपरीक्षा तर्कशैलीका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ सत्यशासन-परीक्षाके नामकरणमें विद्यानन्दिने अन्वर्थता, पूर्वपरम्परा तथा नवीनताके पूर्ण सामञ्जस्यका ध्यान रखा है। इसी प्रसंगमें विद्यानन्दिने संकेतसे 'आप्तवत्' पदके द्वारा अपने दूसरे ग्रन्थ आप्तपरीक्षाकी भी सूचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001567
Book TitleSatyashasana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorGokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages164
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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