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सत्यशासन-परीक्षा ग्रन्थका आरम्भ "ॐ नमः सिद्धेभ्यः, निर्विघ्नमस्तु" लिखकर पूर्वोक्त प्रकारसे ही किया गया है । इसके अन्तिम कुछ पत्र स्थानान्तरित हो गये प्रतीत होते हैं । अन्तिम ४३वां पृष्ठ निम्न वाक्योंके साथ समाप्त होता है
"संसर्गहाने: सकलार्थहानिर्दुनिवारावशेषिकाणामुपनिपतति । तदुक्तं स्वामिमिः.......।"
भाषा-संबन्धी अशुद्धियोंके साथ इस प्रतिमें एकाध अक्षर, शब्द और कहीं-कहीं वाक्य तक छूट गये हैं। इस सबके बाद भी यह प्रति उपर्युक्त दोनों प्रतियोंकी अपेक्षा अधिक शुद्ध है। इसका संकेत-चिह्न
अप्राप्त प्रति
सत्यशासन-परीक्षाकी एक प्रति बम्बईके ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में भी है जो मुझे प्राप्त नहीं हो सकी । यह प्रति भी आराको प्रतिको तरह अपूर्ण है।' [ आ] मूल ग्रन्थ संयोजन
मूल ग्रन्थका सम्पादित विधान निम्न प्रकार किया गया है[क] शुद्ध पाठ
उपर्युक्त तीन प्रतियोंके पाठोंमें जो सबसे अधिक उपयुक्त एवं सही प्रतीत हुआ उसे मूलमें रखकर दूसरी प्रतियोंके पाठोंको संकेत-चिह्नके साथ नीचे पाठान्तरोंमें दे दिया है।
तीनों प्रतियोंसे मिलान करनेके बाद भी यदि कहीं कोई अक्षर त्रुटित प्रतीत हुआ तो उसे [ ] ऐसे कोष्ठकके अन्दर मल पाठके साथ ही दिया गया है।
उद्धृत वाक्योंमें यदि कोई त्रुटि प्रतीत हुई तो उसके मूल स्थलको खोजकर उसके आधारपर पाठशुद्धि की गयी है।
इस त्रिकोणात्मक प्रयत्नसे मूल ग्रन्थको पूर्ण शुद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है। [ख] उद्धृत वाक्योंके मूल स्थल तथा अन्य संकेत
प्रस्तुत ग्रन्थमें विभिन्न शास्त्रोंके अनेक उद्धरण आये हैं, उन सभीके मल स्थलोंको खोजनेका प्रयत्न किया गया है। अधिकांश जो मिल गये हैं उनके मूल स्थानोंका संकेत तत्तत् ग्रन्थोंके संकेतोंके साथ उद्घत वाक्योंके साथ [
] ऐसे ब्रेकिटमें दे दिया है; जो नहीं मिले उनके सामने ब्रेकिट खाली छोड़ दिया है। इससे कमसे-कम इतना पता तो लग ही जायेगा कि यह उद्धृत वाक्य है।
उद्धृत वाक्योंको ....." दोहरे उद्धरण चिह्नके भीतर दिया गया है। दूसरे संकेत अन्य सिद्धान्त व सैद्धान्तिकोंके हैं । ऐसे नामोंके नीचे-- इस प्रकारकी रेखा दी गयी है।
[ग] विषय विभाग . सम्पादनके लिए जो तीन प्रतियां प्राप्त हुई उनमें से किसीमें भी अन्यमें कोई वर्गीकरण नहीं है। हमने सर्व-प्रथम पूरे ग्रन्थको पुरुषाद्वैत आदि विभिन्न शासनोंके अनुसार-'पुरुषाद्वैतशासन-परीक्षा' इत्यादि नामसे वर्गीकृत किया है। तदनन्तर प्रत्येक परीक्षाको वाक्य खण्डों ( पैराग्राफस् ) में बांट दिया है।
[घ ] अर्थबोधक तथा तुलनात्मक टिप्पण
ग्रन्थके मूल पाठपर हिन्दीके अंकका संकेत देकर नीचे दो प्रकारके टिप्पण दिये गये हैं। इनमें कुछ अर्थबोधक हैं कुछ तुलनात्मक । अर्थबोधक टिप्पण विशेष करके सर्वनाम शब्दों तथा क्लिष्ट शब्दोंपर लिखे गये हैं। तुलनात्मक टिप्पण जो बहुत ही अल्प है, विद्यानन्दिके दूसरे ग्रन्थों तथा न्याय शास्त्रके अन्य जैन-जनेतर ग्रन्थोंसे लिये गये है। ये टिप्पण या तो विषय-साम्यके आधारपर हैं या शब्द-साम्यके आधारपर ।
१. पं. दरबारीलालजी कोठिया-आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, पृ. ४४ ।
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