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________________ सिवकेऊ चरियं २३ हा हा ? किमयमेवं ? जाव भणंतो जणो समुद्रुइ। सो अत्थाणनिविट्ठो ता उट्ठ उं न सक्केइ ।।७०१।। थंभेऊणं मुक्को तेण सुरेणं जणो समग्गो वि । पेच्छतरस्स वि सो परियणस्स निहणं गओ झत्ति ।।७०२।। उत्थंभिओ तओ सो अत्थाणजणो सुरेण सव्वो वि। पकरेइ विभूईए रन्नो देहस्स सक्कारं ।।७०३।। मइसागरेण पुढो इममट्ठ देवगुत्तकेवलिओ । तेण परिभाविऊणं कहिओ जयधम्मवृत्तंतो ।।७०४।। दुक्खेण तेण मइसागरेण भणिओ पिया सुमइमंती। गिन्हामि अहं दिक्खं विरहे निवभुवणपालस्स ।।७०५।। अह सुमइमंतिणा सो महोवरोहेण नियपए ठविओ। अहिसित्तो रज्जे पुण आणेऊणं विजयपालो ।।७०६।। गहिया सयं तु दिक्खा छ8 मासम्मि विजयपालो वि । निहणं नीओ देवेण तेण पुवप्पओएण ।।७०७।। अन्ने वि विजयरायप्पमुहा तह विजयसीहपज्जंता । एएणेव कमेणं विणासिया तेण देवेण ।।७०८।। तम्मि समयम्मि पत्तो वेयड्ढनगाओ तत्थ सूरो वि। मिलणत्थं निययसहोयरस्स निवभुवणपालस्स ॥७०९।। पेक्खेइ सयलनयरं नरिंदभवणं च सोय-संतत्तं । तो पुच्छइ भइसागरमेससरूवं कहइ सव्वं ।।७१०।। तो कंदिऊण बयं सूरो खयरेसरो भणइ एवं । रायप्पहाणपुरिस जयधम्मे अणुवसंतम्मि ॥७११।। रज्जम्मि को वि अन्नो अहिसिच्चइ नेय एस मे बुद्धी । अन्नह सो सव्वस्स वि करिही वंसस्स उच्छेयं ।७१२।। तस्सोवसमोवाओ मंतिज्जउ को वि तो महापुरिसा। उवविट्ठामंतणए भणंति नियनियमभिप्पायं ।।६१३।। के वि पभणंति पूया कारिज्जइ देवयाण पइदियहं । जह ताण पभावेणं न कि पि सो सक्कए काउं ।।७१४।। अन्ने भणंति जुत्तं एवं कीरउ इमं पि तावेक्कं । होमाइसंतिकम्मं कारिज्जउ तह दुइज्जंपि ।।७१५।। एगे भणंति कीरउ एयं उभयं पि कि तु तइयंपि । दुत्थिय-दीणाणाहाइयाण दाविज्जए दाणं ।।७१६।। अवरे वयंति तिन्नि वि कीरंतु इमाइं किंतु धवलहरं। एयं परिच्चइज्जइ चिरंतण एत्थ परिचत्ते ॥७१७।। जइ पुण सो न पकुप्पइ तत्तो अन्नत्थ कत्थ वि पएसे । कारेउं पासायं ठाविज्जइ तत्थ नवराया ॥७१८।। अन्ने जंपति जहा नयरनिवेसो वि अन्न ठाणम्मि। कीरउ कोवोवसमो विसेसओ तस्स जह होइ ।।७१९।। सुन्वइ सत्थेसु वि एरिसं जहा देवया विसेसेहि । उव्वासियाइं पुव्वं नयराई कहिं चि कुविएहिं ।।७२०।। तो तन्नयरनरिंदा अन्नयरट्ठाणठवियनयरेसु । रज्जं निरुवद्दवमायरंति सुइरं निरासंका ॥७२१॥ इय एवमाइनियनियमावेसु पयासिएसु सव्वेहिं । तेहिं तओ नियभावं पभासए सूरखयरिंदो ॥७२२।। सव्वेहि वि तुब्भेहि भणियमिणं संगयं परं किंतु । एवं पि कीरमाणे जयधम्मसुरस्स हिययाओ ॥७२३।। रोसो न ओसरंतो संभाविज्जइ जओ स जणयस्स। अहिगारिणो वि रज्जं न जायमन्त्रेण संगहियं ॥७२४॥ तेणेस तस्स वंसे रज्जं काउं न देइ कस्स विय । धवलहरे नयरे वा अन्नम्मि वि कयनिवासस्स ।।७२५।। जइ ठाण-पडिबंधस्स कारणेणं हवेज्ज सो कुविओ। तो ठाण-परिच्चाए एसो कोवं परिच्चयइ ।।७२६॥ देवय-पूयाईहिं वि पडिहम्मइ नेय तस्स सामत्थं । जेणेस अनाण-तवं तिव्वं काउं सुरो जाओ ॥७२७।। तो मज्झ इमा बुद्धी कुमारजयधम्मसंतिया पडिमा । कारेउं अहिसिच्चओ रज्जे सीहासणे ठविउं ॥७२८।। अत्थाणम्मि वि मुच्चउ तं पणमेउं जणो समग्गो वि । तत्थ निसीयउ तस्स उ आणा भामिज्जए देसे ।।७२९।। छ8 मासम्मि तओ दद्दू एत्थागओ नियं पडिमं । उवसमिउं जइ जंपइ जयधम्मसुरो इमं कह वि ।।७३०।। उवसंतो मह कोवो इहिं एयम्मि रायवंसम्मि। अज्जपभिई कस्स वि उवद्दवं नो करिस्सामि ।।७३१।। तो अन्नो अहिसिच्चइ रज्जे इह कोवि होइ जइ जोग्गो। अह एवं नो जंपइ तो रज्जं वहउ एमेव ।।७३२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001564
Book TitleMunisuvratasvamicarita
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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