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________________ श्रावकके इन आठ मूलगुणोंकी पुष्टि व्रतोद्योतन श्रावकाचारके श्लोक २४४ ( देखो-भा० ३, पृ० २३२ ) से तथा सावयधम्मदोहाके दोहा ७७ से भी होती है । ( देखो-भा० १ पृ. ४९० ) रात्रि-भोजन शीतकालमें जबकि दिन बहुत छोटे होने लगते हैं-खेती करनेवाले और सरकारी नौकरी करनेवाले लोगोंको सायंकालका भोजन सूर्यास्तके पूर्व करने में कठिनाईका अनुभव होता है, उनके लिए प्रथम और श्रेष्ठ मार्ग तो यह है कि वे खेतपर या नौकरीपर जाते समय ही सायंकालका भोजन साथ ले जावें और सूर्यास्तसे पूर्व भोजन कर लेवें। यदि ऐसा न कर सकें तो उन्हें रात्रिमें कालकृत नियम अवश्य कर लेना चाहिए कि हम रातमें सात या आठ बजे तक ही भोजन करेंगे, उसके पश्चात् नहीं करेंगे । शास्त्रोंमें ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं कि जिसने एक प्रहर-प्रमाण भी रात्रिभोजनका त्याग किया है, वह भी उसके सुफलको प्राप्त हुआ है। आजके विद्युत्-प्रकाशको लेकर लोग रात्रि-भोजन करनेमें जीव-घात न होने या जीव-भक्षण न होनेकी बात कहते हैं, किन्तु उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि विद्युत्के तीव्र प्रकाशसे और भी अधिक जीव आकृष्ट होते हैं और वे गमनागमनके द्वारा या भोजनमें गिरकर मृत्युको प्राप्त होते हैं । आ० अमृतचन्द्र, अमितगति, सकलकीत्ति आदिने रात्रिभोजनके दोषोंका बहुत विस्तृत वर्णन किया है, रात्रिमें भोजन करनेवाले व्यक्तियोंको उनपर अवश्य ध्यान देना चाहिए। कुछ लोग रात्रिमें अन्नसे बने भोज्य पदार्थोंक न खानेका नियम लेकर सिंघाड़ा, राजगिर आदिसे बने विविध पक्वानों या मिष्ठान्नों और रात्रिमें ही उनके द्वारा बनाये गये नमकीन भुजियोंको खाते हैं, उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके ऐसा करने में तो और भी अधिक जीवहिंसा होती है और वे और भी अधिक पापके भागी होते हैं। . रात्रिमें भोजन न करने और सूर्यास्तसे पूर्व भोजन करनेका एक प्रसंग याद आ रहा है । जब हम पट्खण्डागमके तीसरे भागमें आये गणितके स्पष्टीकरणार्थ अमरावती कालेजमें गणितके प्रोफेसर श्री काशीनाथ पाण्डेके यहाँ चार बजे शामको जाया करते थे, तब एक दिन उन्होंने सूर्यास्तसे पूर्व शामके भोजनकी प्रशंसा करते हुए बताया कि हमारी पत्नी इससे बहुत अधिक प्रभावित हैं। वे कहती हैं कि १० मास तो हम अमरावती ( स्वर्ग ) में रहते हैं और दो मास लखनऊ ( नरक ) में रहते हैं। जब उनसे इसका खलासा करनेको कहा गया तो उन्होंने बतलाया कि १० मास तक यहाँ रहनेपर हम लोग शामका भोजन सूर्यास्तसे पूर्व कर लेते हैं, और रसोईघरकी सफाई आदि हो जाती है। किन्तु २ मासके ग्रीष्मावकाशमें लखनऊ ( स्वदेश ) जाते हैं । वहाँपर कुटुम्बका कोई व्यक्ति ८ बजे, कोई ९ बजे और कोई १०-११ बजे रातमें खाने आता है । फलस्वरूप रसोईघरकी सफाई नहीं हो पाती है और प्रातःकाल अनेकों कीड़े-मकोड़ोंसे भरे हुए बर्तनोंको देखकर रसोईघर नरक-सा दिखता है। इस प्रसंगके उल्लेख करनेका अभिप्राय यही है कि अजैन लोग तो जैनियोंके इस अनस्तमित भोजनकी महत्ताको समझकर उसे पालनेका प्रयत्न करें और हम जैन लोग जो कुलक्रमागत रूपसे रात्रि-भोजी नहीं रहे हैं-अब रात्रिभोजन करनेकी ओर उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहे हैं, यह महान् दुःखकी बात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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