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अर्थात्-संसारके कारणभूत कर्मशत्रुओंसे भयभीत श्रावकके गुरुसाक्षीपूर्वक ग्रहण किये गये सब व्रतोंके रक्षणको शील कहते हैं। पूज्यपाद श्रावकाचारमें शीलका लक्षण इस प्रकार दिया है :
यद् गृहीतं व्रतं पूर्व साक्षीकृत्य जिनान् गुरुन् ।
तबताखंडनं शीलमिति प्राहुर्मुनीश्वराः ।। ७८ ॥ अर्थात्-देव या गुरुको साक्षीपूर्वक जो व्रत पहले ग्रहण कर रखा है, उसका खंडन नहीं होने देनेको अर्थात् सावधानीपूर्वक उसकी रक्षा करनेको मुनीश्वर 'शील' कहते हैं।
शीलके इसी भावको बहुत स्पष्ट शब्दोंमें अमृतचन्द्राचार्यने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें व्यक्त किया है कि जिस प्रकार कोट नगरोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार शील व्रतोंकी रक्षा करते हैं, अतएव व्रतोंकी करनेके लिए शीलोंको भी पालना चाहिए।
व्रतका अर्थ हिंसादि पापोंका त्याग है और शीलका अर्थ गृहीत व्रतकी रक्षा करना है। जिस प्रकार कोट नगरका या बाढ़ बीजका रक्षक है उसी प्रकार शील भी व्रतोंका रक्षक है । नगर मूल अर्थात् प्रथम है और कोट उत्तर अर्थात् पीछे है। इसी प्रकार बीज प्रथम या मूल है और काँटे आदिकी बाढ़ उत्तर है । ठीक इसी प्रकार अहिंसादि पाँच व्रत श्रावकोंके और मुनियोंके मूलगुण हैं और शेष शील व्रत या उत्तर गुण हैं, यह फलितार्थ जानना चाहिए। ___ तत्त्वार्थभाष्यके उल्लेखानुसार श्रावकके शील और उत्तरगुण एकार्थक रहे हैं । यही कारण है कि सूत्रकारादि जिन अनेक आचार्योंने गुणव्रत और शिक्षाव्रतकी शील संज्ञा दी है, उन्हें ही सोमदेव आदिने उत्तरगुणोंमें गिना है। हाँ, मुनियोंके अठारह हजार शीलके भेद और चौरासी लाख उत्तरगुण उत्तरोत्तर विकास और परम यथाख्यात चारित्रकी अपेक्षा कहे गये हैं।
उक्त निष्कर्षके प्रकाशमें यह माना जा सकता है कि उमास्वाति या उनके पूर्ववर्ती आचार्योंको श्रावकोंके मूलव्रत या मूलगुणोंकी संख्या पाँच और शीलरूप उत्तरगुणकी संख्या सात अभीष्ट थी। परवर्ती आचार्योंने उन दोनोंकी संख्याको पल्लवितकर मूलगुणोंको संख्या आठ और उत्तरगुणोंकी संख्या बारह कर दी। हालाँकि समन्तभद्रने आचार्यान्तरोंके मतसे मूलगुणोंको संख्या आठ कहते हुए भी स्वयं मूलगुण या उत्तरगुणोंकी कोई संख्या नहीं कही है, और न मूल वा उत्तर रूपसे कोई विभाग ही किया है।
७. वर्तमान समयके अनुकूल आठ मूलगुण आजकलके वर्तमान समयको देखते हुए पं० आशाधर द्वारा मतान्तररूपसे उद्धृत आठ मूलगुण अधिक उपयुक्त हैं। वे इस प्रकार हैं
१. मद्यपान त्याग, २. मांस-भक्षण त्याग, ३. मधु-सेवन त्याग, ४. रात्रिभोजन त्याग, ५. उदुम्बरफल भक्षण त्याग, ६. अगालित जलपान त्याग, ७. नित्यदेवदर्शन या पंचपरमेष्ठीस्मरण और ८. जीव दया-पालन । ( देखो-भा० २ पृ० ८ श्लोक १८) १. परिषय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । ।
व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६॥-पुरुषार्थसि.
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