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________________ ( ६८ ) पापोंका स्वरूप कहकर व्रतीका लक्षण कहा और व्रतीके अगारी और अनगारी ऐसे दो भेद कहे। पुनः अगारीको अणुव्रतधारी बतलाया और उसके पश्चात् ही उसके सप्त व्रत ( शील ) समन्वित होनेको सूचित किया । इन अन्तिम दो सूत्रोंपर गम्भीर दृष्टिपात करते ही यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि अगारी पाँच अणुव्रत और सात शीलोंका धारी होता है, तो दो सूत्र पृथक्-पृथक् क्यों बनाये ? दोनोंका एक ही सूत्र कह देते । ऐसा करनेपर 'सम्पन्न' और 'च' शब्दका भी प्रयोग न करना पड़ता और सूत्र-लाघव भी होता । पर सूत्रकारने ऐसा न करके दो सूत्र ही पृथक्-पृथक् बनाये, जिससे प्रतीत होता है कि सूत्रकारको पाँच अणुव्रत मूलगुण रूपसे और सात शील उत्तर गुण रूपसे विवक्षित रहे हैं, जिसका समर्थन श्वे. तत्त्वार्थभाष्यसे भी होता है, यह आगे बताया जायगा। एक विचारणीय प्रश्न ___ यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब समन्तभद्र और चारित्रसारके उल्लेखानुसार गुणभद्र या जिनसेन जैसे महान् आचार्य पाँच अणुव्रतोंको मूलगुणोंमें परिगणित कर रहे हों, तब अमृतचन्द्र सोमदेव या उनके पूर्ववर्ती किसी अन्य आचार्यने उनके स्थानपर पंचक्षीरी फलोंके परित्यागको मूलगुण कैसे माना ? उदुम्बर फलोंमें अगणित त्रसजीव स्पष्ट दिखाई देते हैं और उनके खानेमें अहिंसाका या मांस खानेका पाप लगता है। त्रसहिंसाके परिहारसे उसका अहिंसाणुव्रतमें अन्तर्भाव किया जा सकता था ? ऐसी दशामें पंच उदुम्बरोंके परित्यागको पाँच मूलगुण न मानकर एक ही मूलगुण मानना अधिक तर्कयुक्त था। विद्वानोंके लिए यह प्रश्न अद्यावधि विचारणीय बना हुआ है। संभव है किसी समय क्षीरी फलोंके भक्षणका सर्वसाधारणमें अत्यधिक प्रचार हो गया हो, और उसे रोकनेके लिए तात्कालिक आचार्योंको उसके निषेधका उपदेश देना आवश्यक रहा हो और इसीलिए उन्होंने पंचक्षीरी फलोंके परिहारको मूलगुणोंमें स्थान दिया हो। __लाटीसंहिताकार राजमल्लजीने उदुम्बरको उपलक्षण मानकर त्रसजीवोंसे आश्रित फलोंके और अनन्तकायिक साधारण वनस्पतिके भक्षणका भी निषेध अष्टमूलगुणके अन्तर्गत कहा है। (देखो भा० ३, पृ० १० श्लोक ७८-७९) ६. शीलका स्वरूप एवं उत्तरव्रत-संख्यापर विचार सूत्रकार द्वारा गुणव्रतों और शिक्षाव्रतोंको जो 'शील' संज्ञा दी गई है, उस 'शोल' का क्या स्वरूप है, यह शंका उपस्थित होती है। आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें 'शील' का स्वरूप इस प्रकारसे दिया है : संसारारातिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् । गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ।। ४१ ॥ ( अमि० श्रा० परि० १२, श्रा० सं० भा० १) १. निःशल्यो व्रतो ॥१८॥ २. बगार्यनगाररुच ॥१९॥ ३. अणुव्रतोऽगारी ।।२०।। ४. दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागातसम्पन्नश्च ॥२१॥ -तत्व० ब० ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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