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________________ चर्यां तु देवतार्थ वा मंत्रसिद्धयर्थमेव चा। औषधाहारक्लप्त्य वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥ १४७ ॥ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैविधीयते । पश्चाच्चात्मान्वयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥ १४८ ॥ चर्येषा गृहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् ।। देहाहारेहितत्यागाद् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् ॥ १४९ ॥ त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनार्हद्-द्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृतिः ॥ १५० ॥ -आदिपुराण पर्व ३९ अर्थात् यहाँ यह आशंका की गई है कि जो षट्कर्मजीवी द्विजन्मा जैनी गृहस्थ हैं, उनके भी हिंसा दोषका प्रसंग होगा ? इसका उत्तर दिया गया है कि हाँ, गृहस्थ अल्प सावद्यका भागी तो होता है, पर शास्त्रमें उसकी शुद्धि भी बतलाई गई है। शुद्धिके तीन प्रकार हैं :-पक्ष, चर्या और साधन । इसका अर्थ इस प्रकार है-समस्त हिंसाका त्याग करना ही जैनोंका पक्ष है । उनका यह पक्ष मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यरूप चार भावनाओंसे वृद्धिंगत रहता है । देवताकी आराधनाके लिए, या मंत्रकी सिद्धिके लिए, औषधि या आहारके लिए मैं कभी किसी भी प्राणीको नहीं मारूँगा, ऐसी प्रतिज्ञाको चर्या कहते हैं। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी कोई दोष लग जाय तो प्रायश्चित्तके द्वारा उसको शुद्धि बताई गई है । पश्चात् अपने सब कुटुम्ब और गृहस्थाश्रमका भार पुत्रपर डालकर घर त्याग कर देना चाहिए । यह गृहस्थोंकी चर्या कही गई है। अब साधनको कहते हैं-जोवनके अन्तमें अर्थात् मरणके समय शरीर, आहार और सर्व इच्छाओंका परित्याग करके ध्यानकी शुद्धि द्वारा आत्माके शुद्ध करनेको साधन कहते हैं। अर्हदेवके अनुयायी द्विजन्मा जैनोंको इन पक्ष, चर्या और साधनका साधन करते हुए हिंसादि पापोंका स्पर्श भी नहीं होता है और इस प्रकार ऊपर जो आशंका की गई थी, उसका परिहार हो जाता है। उपर्युक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि जिसे अर्हद्देवका पक्ष हो, जो जिनेन्द्रके सिवाय किसी अन्य देवको, निग्रन्थ गुरुके अतिरिक्त किसी अन्य गुरुको और जैनधर्मके सिवाय किसी अन्य धर्मको न माने, जैनत्वका ऐसा दृढ़ पक्ष रखनेवाले व्यक्तिको पाक्षिक श्रावक कहते हैं। इसका आत्मा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावनासे सुवासित होना ही चाहिए। जो देव, धर्म, मन्त्र, औषधि, आहार आदि किसी भी कार्यके लिए जीवघात नहीं करता, न्यायपूर्वक आजीविका करता हुआ श्रावकके बारह व्रतोंका और ग्यारह प्रतिमाओंका आचरण करता है, उसे चर्याका आचरण १. स्यान्मत्र्याधुपबृंहितोऽखिलवधत्यागी न हिंस्यामहं, धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झतः । सुनौ न्यस्य निजान्वयं गहमथो चर्या भवेत्साधनम, त्वन्तेऽत्रेह तनूज्झनाद्विशदया ध्यात्याऽऽत्मनः शोधनम् ॥१९॥ पाक्षिकादिभिदा वेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तनिष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥२०॥-सागारधर्मामृत अ० १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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