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किया है कि श्रावक बारह व्रतोंका विधिवत् पालन करके अन्तमें उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, रोग आदि निष्प्रतीकार आपत्तिके आ जानेपर अपने धर्मकी रक्षाके लिए सल्लेखनाको धारण करे।' सल्लेखनाका क्रम और उसके फलको अनेक श्लोकों द्वारा बतलाते हुए उन्होंने अन्तमें बताया है कि इस सल्लेखनाके द्वारा वह दुस्तर संसारसागरको पार करके परम निःश्रेयस-मोक्षको प्राप्त कर लेता है, जहाँ न कोई दुःख है, न रोग, चिन्ता, जन्म, जरा, मरण, भय, शोक आदिक । जहाँ रहनेवाले अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख-आनन्द, परम सन्तोष आदिका अनन्त काल तक अनुभव करते रहते हैं। इस समग्र प्रकरणको और खास करके उसके अन्तिम श्लोकोंको देखते हुए एक बार ऐसा प्रतीत होता है मानों ग्रन्थकार अपने ग्रन्थका उपसंहार करके उसे पूर्ण कर रहे हैं। इसके पश्चात् ग्रन्थके सबसे अन्तमें एक स्वतन्त्र अध्याय बनाकर एक-एक श्लोकमें श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप-वर्णनकर ग्रन्थको समाप्त किया गया है। श्रावक-धर्मका अन्तिम कर्तव्य समाधिमरणका सांगोपांग वर्णन करनेके पश्चात् अन्तमें ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करना सचमुच एक पहेली-सी प्रतीत होती है और पाठकके हृदयमें एक आशंका उत्पन्न करती है कि जब समन्तभद्रसे पूर्ववत्ती कुन्दकुन्द आदि आचार्योंने ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावक-धर्मका वर्णन किया, तब समन्तभद्रने वैसा क्यों नहीं किया ? और क्यों ग्रन्थके अन्तमें उनका वर्णन किया ? पर उक्त आशंकाका समाधान उपासकदशाके वर्णनसे तथा रत्नकरण्डकके टीकाकार द्वारा प्रतिमाओंके वर्णन के पूर्व दी गई उत्यानिकासे भली भाँति हो जाता है, जहाँ उन्होंने लिखा है
'साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशक्याह ।
अर्थात्-सल्लेखनाका अनुष्ठान करनेवाले श्रावककी कितनी प्रतिमा होती है, इस आशंकाका उत्तर देते हुए ग्रन्थकारने आगेका श्लोक कहा।
(३) श्रावक धर्मके प्रतिपादनका तीसरा प्रकार पक्ष, चर्या और साधनका निरूपण है । इस मार्गके प्रतिपादन करनेवालोंमें हम सर्वप्रथम आचार्य जिनसेनको पाते हैं। आचार्य जिनसेनने यद्यपि श्रावकाचार पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रचा है, तथापि उन्होंने अपनी सबसे बड़ी कृति महापुराणके ३९-४० और ४१वें पर्वमें श्रावक धर्मका वर्णन करते हुए ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति, उनके लिए व्रत-विधान, नाना क्रियाओं और उनके मन्त्रादिकोंका खुब विस्तृत वर्णन किया है। वहीं पर उन्होंने पक्ष, चर्या और साधनरूपसे श्रावक-धर्मका निरूपण इस प्रकारसे किया है
स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।। १४३ ।। इत्यत्र ब्रूमहे सत्यमल्पसावद्यसंगतिः । तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रर्शिता ॥ १४४ ॥ अपि चैषां विशुद्धयंगं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥ १४५ ॥ तत्र पक्षो हि जनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् ।
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृंहितम् १. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे ।
धर्माय तनविमोचनमाहः सल्लेखनामार्याः ॥१२२।।-रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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