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________________ संन्यासको धारण कर समाधिमरण किया और शुभ परिणाम वा शुभ लेश्याके योगसे सौधर्म स्वर्गमें चार पल्योपमकी स्थितिका धारक महद्धिक देव उत्पन्न हुआ।' इस कथानकसे यह बात स्पष्ट है कि जो सीधा मुनि बननेमें असमर्थ है, वह श्रावकधर्म धारण करे और घरमें रहकर उसका पालन करता रहे। जब वह घरसे उदासीनताका अनुभव करने लगे और देखे कि अब मेरा शरीर दिन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है और इन्द्रियोंकी शक्ति घट रही है, तब घरका भार बड़े पुत्रको संभलवाकर और किसी गुरु आदिके समीप जाकर क्रमशः ग्यारह प्रतिमाओंका नियत अवधि तक अभ्यास करते हुए अन्तमें या तो मुनि बन जाय, या संन्यास धारण कर आत्मार्थको सिद्ध करे । तत्त्वार्थसूत्रमें यद्यपि ऐसी कोई सीधी बात नहीं कही गई है, पर सातवें अध्यायका गम्भीर अध्ययन करनेपर निम्न सूत्रोंसे उक्त कथनको पुष्टिका संकेत अवश्य प्राप्त होता है । वे सूत्र इस प्रकार हैं : अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥२१॥ मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ तत्त्वार्थसूत्र, अ० ७। इनमेंसे प्रथम सूत्रमें बताया गया है कि अगारी या गृहस्थ पंच अणु ब्रतका धारी होता है । दूसरे सूत्र में बताया गया है कि वह दिग्व्रत आदि सात शीलोंसे सम्पन्न भी होता है। तीसरे सूत्रमें बताया गया है कि वह जीवनके अन्तमें मारणान्तिकी सल्लेखनाको प्रेमपूर्वक धारण करे। यहाँ पर श्रावकधर्मका अभ्यास कर लेनेके पश्चात् नि बननेकी प्रेरणा या देशना न करके सल्लेखनाको धारण करनेका ही उपदेश क्यों दिया ? इस प्रश्नका स्पष्ट उत्तर यही है कि जो समर्थ है और गृहस्थीसे मोह छोड़ सकता है, वह तो पहले ही मुनि बन जाय । पर जो ऐसा करनेके लिए असमर्थ है, वह जीवन-पर्यन्त बारह व्रतोंका पालन कर अन्तमें संन्यास या समाधिपूर्वक शरीर त्याग करे। इस संन्यासका धारण सहसा हो नहीं सकता, घरसे, देहसे और भोगोंसे ममत्व भी एकदम छूट नहीं सकता, अतएव उसे क्रम-क्रमसे कम करनेके लिए ग्यारह प्रतिमाओंकी भूमिका तैयार की गई प्रतीत होती है. जिसमें प्रवेश कर वह सांसारिक भोगोपभोगोंसे तथा अपने देहसे भी लालसा, तृष्णा, गृद्धि, आसक्ति और स्नेहको क्रमशः छोड़ता और आत्मिक शक्तिको बढ़ाता हुआ उस दशाको सहजमें ही प्राप्त कर लेता है, जिसे चाहे साधु-मर्यादा कहिये और चाहे सल्लेखना। यहाँ यह आशंका व्यर्थ है कि दोनों वस्तुएँ भिन्न हैं, उन्हें एक क्यों किया जा रहा है ? इसका उत्तर यही है कि भक्त-प्रत्याख्यान समाधिमरणका उत्कृष्ट काल बारह वर्षका माना गया है, जिसमें ग्यारहवीं प्रतिमाके पश्चात् संन्यास स्वीकार करते हुए पाँच महाव्रतोंको धारण करने पर वह साक्षात् मुनि बन हो जाता है। तत्त्वार्थसूत्र और उपासकदशासूत्रके वर्णनसे निकाले गये उक्त मथितार्थकी पुष्टि स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्ड-श्रावकाचारसे भी होती है । जिन्होंने मननके साथ रत्नकरण्डकका अध्ययन किया है, उनसे यह अविदित नहीं है कि कितने अच्छे प्रकारसे आचार्य समन्तभद्रने यह प्रतिपादन १. देखो उपासकदशा सूत्र, अध्ययन १ का अन्तिम भाग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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