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________________ नहीं जा सकता। क्योंकि जब सूत्रकार एक-एक व्रतके अतीचार बतानेके लिए पृथक्-पृथक् सूत्र बना सकते थे, अहिंसादि व्रतोंकी भावनाओंका भी पृथक्-पृथक् वर्णन कर सकते थे, तो क्या अष्टमूलगुणोंके लिए एक भी सूत्रको स्थान नहीं दे सकते थे? यह एक विचारणीय प्रश्न है । इसके साथ ही सूत्रकारने श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका भी कोई निर्देश नहीं किया ? यह भी एक दूसरा विचारणीय प्रश्न है। तत्त्वार्थसूत्रसे उपासकदशासूत्रमें इतनी बात अवश्य विशेष पाई जाती है कि उसमें ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन १२ व्रतोंके सातिचार वर्णनके पश्चात् और सल्लेखना धारण करनेके पूर्व किया है । इस उपासकदशासूत्रमें वर्णित दशों ही श्रावकोंने बारह व्रतोंको जीवनके अधिकांश भागमें पालकर. समाधिमरणसे पूर्व ही ११ प्रतिमाओंका पालन कर सल्लेखना स्वीकार की है। उक्त उपासकदशासूत्रमें कुन्दकुन्द या स्वामिकात्तिकेयके समान प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका वर्णन नहीं किया गया है। किन्तु एक नवीन ही रूप वहाँ दृष्टिगोचर होता है। जो इस प्रकार है : __ आनन्द नामक एक बड़ा धनी सेठ भ० महावीरके उपदेशसे प्रभावित होकर विनयपूर्वक निवेदन करता है कि भगवन्, मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनकी श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ और वह मुझे सर्व प्रकारसे अभीष्ट एवं प्रिय भी है। भगवान्के दिव्य-सान्निध्यमें जिस प्रकार अनेक राजेमहाराजे और धनाढ्य पुरुष प्रवजित होकर धर्म-साधन कर रहे हैं, उस प्रकारसे में प्रवजित होनेके लिए अपनेको असमर्थ पाता हूँ । अतएव भगवन्, मैं आपके पास पाँच अणु व्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकारके गृहस्थ धर्मको स्वीकार करना चाहता हूँ।' इसके अनन्तर उसने क्रमशः एकएक पापका स्थूल रूपसे प्रत्याख्यान करते हुए पाँच अणु व्रत ग्रहण किये और दिशा आदिका परिमाण करते हुए सात शिक्षाव्रतोंको ग्रहण किया। तत्पश्चात् उसने घरमें रहकर बारह व्रतोंका पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत किये। पन्द्रहवें वर्षके प्रारम्भमें उसे विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने जीवनका बड़ा भाग गृहस्थीके जंजाल में फंसे हुए निकाल दिया है। अब जीवनका तीसरा पन है, क्यों न गृहस्थीके संकल्प-विकल्पोंसे दूर होकर और भ० महावीरके पास जाकर मैं जीवनका अवशिष्ट समय धर्म-साधनमें व्यतीत करूँ ? ऐसा विचार कर उसने जातिके लोगोंको आमन्त्रित करके उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्रको गृहस्थीका सर्व भार सौंप कर सबसे बिदा ली और भ० महावीरके पास जाकर उपासकोंकी 'दंसणपडिमा' आदिको स्वीकार कर उनका यथाविधि पालन करने लगा। एक-एक 'पडिमा' को उस-उस प्रतिमाकी संख्यानुसार उतने-उतने मास तक पालन करते हुए आनन्द श्रावकने ग्यारह पडिमाओंके पालन करने में ६६ मास अर्थात् ५।। वर्ष व्यतीत किये। तपस्यासे अपने शरीरको अत्यन्त कृश कर डाला। अन्तमें भक्त-प्रत्याख्यान नामक १. सद्दहामि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते, णिग्गंथं पावयणं, रोएमि गं भंते, णिग्गंथं पावयणं । एवमेयं भंते, तहमेयं भंते, अवितहमेयं भंते, इच्छियमेयं भंते, पडिच्छियमेयं भंते, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते, से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कटु जहा णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे राईसर तलवरमांडविक-कोडुम्बिय-से ट्ठि-सत्यवाहप्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जस्सामि । उपासकदशासूत्र अ० १ सू० १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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