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________________ कुछ विद्वानोंने श्रावक पद का इस प्रकारसे भी अर्थ किया है: अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामागारिणां च सामाचारी शृणोतीति श्रावकः ।-श्रावकधर्म प्र० गा० २ अर्थात् जो सम्यक्त्वी और अणुव्रती होने पर भी प्रतिदिन साधुओंसे गृहस्थ और मुनियोंके आचार धर्मको सुने, वह श्रावक कहलाता है। कुछ विद्वानोंने इसी अर्थको और भी पल्लवित करके कहा है: श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम् । कृतत्वपुण्यानि करोति संयमं तं श्रावक प्राहुरमी विचक्षणाः ॥ अर्थ-जो श्रद्धालु होकर जैन शासनको सुने, दीन जनोंमें अर्थको तत्काल वपन करे अर्थात् दान दे, सम्यग्दर्शनको वरण करे, सुकृत और पुण्यके कार्य करे, संयमका आचरण करे उसे विचक्षण जन श्रावक कहते हैं। उपर्युक्त सर्व विवेचनका तात्पर्य यही है कि जो गुरुजनोंसे आत्म-हितकी बातको सदा सावधान होकर सुने, वह श्रावक कहलाता है। __ अणुव्रतरूप देश संयमको धारण करने के कारण देशसंयमी या देशविरत कहते हैं । इसीका दूसरा नाम संयतासंयत भी है क्योंकि यह स्थूल या त्रसहिंसाकी अपेक्षा संयत है और सूक्ष्म या स्थावर हिंसाकी अपेक्षा असंयत है । घरमें रहता है, अतएव इसे गृहस्थ, सागार, गेही, गृही और गृहमेधी आदि नामोंसे भी पुकारते हैं । यहाँ पर 'गृह' शब्द उपलक्षण है, अतः जो पुत्र, स्त्री, मित्र, शरीर, भोग आदिसे मोह छोड़ने में असमर्थ होनेके कारण घरमें रहता है उसे गृहस्थ सागार आदि कहते हैं। ३. उपासकाध्ययन या श्रावकाचार उपासक या श्रावक जनोंके आचार-धर्मके प्रतिपादन करनेवाले सूत्र, शास्त्र या ग्रन्थको उपासकाध्ययन-सूत्र, उपासकाचार या श्रावकाचार नामोंसे व्यवहार किया जाता है। द्वादशांग श्रतके बारह अंगोंमें श्रावकोंके आचार-विचारका स्वतन्त्रतासे वर्णन करनेवाला सातवाँ अंग उपासकाध्ययन माना गया है । आचार्य वसुनन्दिने तथा अन्य भी श्रावकाचार रचयिताओंने अपने ग्रन्थका नाम उपासकाध्ययन ही दिया है। स्वामी समन्तभद्रने संस्कृत भाषामें सबसे पहले उक्त विषयका प्रतिपादन करनेवाला स्वतन्त्र ग्रन्थ रचा और उसका नाम 'रत्नकरण्डक' रक्खा। उसके टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रने अपनी टीकामें और उसके प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें 'रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने' वाक्यके द्वारा 'रत्नकरण्डक नामक उपासकाध्ययन' ऐसा लिखा है। इस उल्लेखसे भी यह सिद्ध है कि १. परलोयहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेइ उवजुतो । अइतिव्वकम्मविगमा सुक्कोसो सावगो एत्थ ॥-पंचा० १ विव. अवाप्तदृष्टयादिविशुद्धसम्पत्परं समाचारमनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ॥-(अभिधानराजेन्द्र, 'सावय' शब्द) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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