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________________ (५८) स्वामी समन्तभद्रने तो सम्यक्त्वके आठों अंगोंमें प्रसिद्धि प्राप्त पुरुषोंके नामोंका केवल उल्लेख ही किया है, पर सोमदेव और उनसे परवर्ती अनेक आचार्योंने तो उनके कथानकोंका विस्तारसे वर्णन भी किया है। उपर्युक्त सर्व कथनका सार यह है कि प्रत्येक विचार-शील व्यक्तिको धर्मके मल आधार सम्यक्त्वको सर्व प्रथम धारण करनेका प्रयत्न करना चाहिए और इसके लिए गुरूपदेश-श्रवण और तत्त्व-चिन्तन-मननसे आत्म-श्रद्धाकी प्राप्ति आवश्यक है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेपर नरक, तिथंच और मनुष्य गतिका आयु-बन्ध न होकर देवगतिका ही आयु-बन्ध होता है। यदि मिथ्यात्वदशामें आयु-बन्ध नरकादि गतियोंका हो भी गया हो तो सातवें नरककी ३३ सागरकी भी आयु-घटकर प्रथम नरककी रह जाती है । नरकआयुकी इतनी अधिक कमी कैसे होती है ? इसका उत्तर यह है कि सम्यक्त्वी जीव प्रतिदिन प्रति समय जो अपने किये हुए खोटे कार्यको निन्दा, गर्दा और आलोचना किया करता है, उसका ही यह सुफल होता है कि वह पूर्व-बद्ध तीव्र अनुभाग और अधिक स्थितिवाले कर्मोंको मन्द अनुभाग और अल्प स्थितिवाला कर देता है । अतः प्रत्येक विवेकी पुरुषको प्रति दिन अपने द्वारा किये गये पाप-कार्योंकी आलोचना, निन्दा और गर्दा करते रहना चाहिए। सम्यक्त्वी पुरुषके आत्मनिन्दा और गर्दा ये गुण माने गये हैं। इनके द्वारा ही अविरत सम्यक्त्वी पुरुष भी प्रति समय असंख्यात-गुणी कर्म-निर्जरा करता रहता है । २. उपासक या धावक गृहस्थ व्रतीको उपासक, श्रावक, देशसंयमी, आगारी आदि नामोंसे पुकारा जाता है। यद्यपि साधारणतः ये सब पर्यायवाची नाम माने गये हैं, तथापि यौगिक दृष्टिसे उनके अर्थों में परस्पर कुछ विशेषता है । यहाँ क्रमशः उक्त नामोंके अर्थोंका विचार किया जाता है। 'उपासक' पदका अर्थ उपासना करनेवाला होता है। जो अपने अभीष्ट देवकी, गुरुकी, धर्मकी उपासना अर्थात् सेवा, वैयावृत्य और आराधना करता है, उसे उपासक कहते हैं । गृहस्थ मनुष्य वीतराग देवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निर्ग्रन्थ गुरुओंकी सेवा-वैयावृत्त्यमें नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थ धर्मकी आराधना करते हुए उसे यथाशक्ति धारण करता है, अतः उसे उपासक कहा जाता है। 'श्रावक' इस नामकी निरुक्ति इस प्रकार की गई है: 'श्रन्ति पचन्ति तत्त्वाथश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः, तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु घनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति ।' (अभिधानराजेन्द्र 'सावय' शब्द) इसका अभिप्राय यह है कि 'श्रावक' इस पदमें तीन शब्द हैं। इनमेंसे 'श्रा' शब्द तो तत्त्वार्थ-श्रद्धानकी सूचना करता है, 'व' शब्द सप्त धर्म-क्षेत्रोंमें घनरूप बीज बोनेकी प्रेरणा करता है और 'क' शब्द क्लिष्ट कर्म या महापापोंको दूर करनेका संकेत करता है । इस प्रकार कर्मधारय समास करने पर 'श्रावक' यह नाम निष्पन्न हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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