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________________ ( ५७ ) सावयधम्मदोहाकारने सम्यक्त्वकी महिमा बताते हुए लिखा है कि जहां पर गरुड बैठा हो, वहाँ पर क्या विष-धर सर्प ठहर सकते हैं, इसी प्रकार जिसके हृदयमें सम्यक्त्वगुण प्रकाशमान है, यहाँ पर क्या कर्म ठहर सकते हैं ? अर्थात् शीघ्र ही निजीर्ण हो जाते हैं । पं० आशाधरने सम्यक्त्वकी महत्ता बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति सर्वज्ञकी आज्ञासे 'इन्द्रिय-विषय-जनित सुख हेय है और आत्मिक सुख उपादेय है' ऐसा दृढ़ श्रद्धान करते हुए भी चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे वैषयिक सुखोंका सेवन करता है और दूसरोंको पीड़ा भी पहुँचाता है, फिर भी इन कार्योंको बुरा जानकर अपनी आलोचना, निन्दा और गर्दा करता है, वह अविरत सम्यक्त्वी भी पाप-फलसे अतिसन्तप्त नहीं होता है । जैसे कि चोरीको बुरा कार्य माननेवाला भी चोर कुटुम्ब-पालनादिसे विवश होकर चोरीको करता है और कोतवालके द्वारा पकड़े जानेपर तथा मार-पीटसे पीड़ित होनेपर अपने निन्द्य कार्यकी निन्दा करता है तो वह भी अधिक दण्डसे दण्डित नहीं होता है। पं० मेधावीने उक्त बातका उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक मुहर्त्तमात्र भी सम्यक्त्वको धारण कर छोड़नेवाला जीव भी दीर्घकाल तक संसारमें परिभ्रमण नहीं करता। साथ ही यह भी कहा है कि आठ अंगों और प्रशम-संवेगादि भावोंसे ही सम्यक्त्वीकी पहिचान होती है। आ० सकलकीत्तिने लिखा है कि सम्यक्त्वके बिना व्रत-तपादिसे मोक्ष नहीं मिलता। गुणभूषणने भी समन्तभद्रादिके समान सम्यक्त्वका वर्णन कर अन्तमें कहा है कि जिसके केवल सम्यक्त्व ही उत्पन्न हो जाता है, उसका नीचेके छह नरकोंमें, भवत्रिक देवोंमें, स्त्रियोंमें, कर्मभूमिज तिर्यंचों एवं दीन-दरिद्री मनुष्योंमें जन्म नहीं होता। पं० राजमल्लजीने सम्यक्त्वका जैसा अपूर्व सांगोपांग सूक्ष्म वर्णन किया है वह श्रावकाचारोंमें तो क्या, करणानुयोग या द्रव्यानुयोगके किसी भी शास्त्रमें दृष्टि-गोचर नहीं होता। सम्यक्त्वविषयक उनका यह समग्र विवेचन पढकर मनन करनेके योग्य है। प्रशम-संवेगादि गणोंका विशद वर्णन करते हुए लिखा है कि ये बाह्य दृष्टिसे सम्यक्त्वके लक्षण हैं । यदि वे सम्यक्त्वके बिना हों तो उन्हें प्रशमाभास आदि जानना चाहिए। उमास्वामि-श्रावकाचारमें रत्नकरण्डक, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि पूर्व-रचित श्रावकाचारोंके अनुसार ही सम्यग्दर्शन, उसके अंगोंका भेद, महिमा आदिका वर्णन करते हुए लिखा है कि हृदयस्थित सम्यक्त्व निःशंकितादि आठ अंगोंसे जाना जाता है। इस श्रावकाचारमें प्रशम, संवेग आदि गुणोंके स्वरूपका विशद वर्णन किया गया है और अन्तमें लिखा है कि जिसके हृदयमें इन आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्व स्थित है, उसके घरमें निरन्तर निर्मल लक्ष्मी निवास करती है। पूज्यपाद श्रावकाचारमें कहा है कि जैसे भवनका मूल आधार नींव है उसी प्रकार सर्व व्रतोंका मूल आधार सम्यक्त्व है । व्रतसार श्रावकाचारमें भी यही कहा है । व्रतोद्योतन श्रावकाचार में कहा है कि सम्यग्दर्शनके बिना व्रत, समिति और गुप्तिरूप तेरह प्रकारका चारित्र धारण करना निरर्थक है । श्रावकाचारसारोद्धारमें तो रत्नकरण्डके अनेक श्लोक उद्धृत करके कहा है कि एक भी अंगसे हीन सम्यक्त्व जन्म-सन्ततिके छेदने में समर्थ नहीं है। पुरुषार्थानुशासनमें कहा है कि सम्यक्त्वके बिना दीर्घकाल तक तपश्चरण करनेपर भी मुक्तिकी प्राप्ति संभव नहीं है । इस प्रकार सभी श्रावकाचारोंमें सम्यक्त्वको जो महिमाका वर्णन किया गया है उसपर रत्नकरण्डका स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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