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चारित्र-भ्रष्ट हुआ नहीं, क्योंकि दर्शन-भ्रष्ट निर्माणपद नहीं पा सकता। दर्शन-विहीन व्यक्ति वन्दनीय नहीं है, सम्यक्त्वरूप जलका प्रवाह ही कर्मबन्धका विनाशक है, धर्मात्माके दोषोंको कहनेवाला स्वयं भ्रष्ट है, सम्यक्त्वसे हो हेय-उपादेयका विवेक प्राप्त होता है, सम्यक्त्व ही मोक्षमहलका मूल एवं प्रथम सोपान है।
'सम्यक्त्व-विषयक उक्त वर्णनको प्रायः सभी परवर्ती श्रावकाचार-रचयिताओंने अपनाया फिर भी कुछने जिन नवीन बातोंपर प्रकाश डाला है, उनका उल्लेख करना आवश्यक है।
- स्वामी कार्तिकेयने सम्यक्त्वके उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भेदोंका स्वरूप कहकर बताया कि आदिके दो सम्यक्त्वोंको तो यह जीव असंख्य बार ग्रहण करता और छोड़ता है, किन्तु क्षायिकको ग्रहण करनेके बाद वह छूटता नहीं और उसी तीसरे और चौथे भवमें निर्वाण पद प्राप्त कराता है। इन्होंने वीतराग देव, दयामयो धर्म और निर्ग्रन्थ गुरुके माननेवालेको व्यवहार सम्यग्दृष्टि और द्रव्योंको और उनकी सर्व पर्यायोंको निश्चयरूपसे यथार्थ जानता है, उसे शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहा है । सम्यक्त्व सर्व रत्नोंमें महा रत्न है, सर्व योगोंमें उत्तम योग है, सर्व ऋद्धियोंमें महा ऋद्धि और यही सभी सिद्धियोंको करनेवाला है । सम्यग्दृष्टि दुर्गतिके कारणभूत कर्मका बन्ध नहीं करता है और अनेक भव-बद्ध कर्मोंका नाश करता है।
आचार्य अमृतचन्द्रने बताया कि मोक्ष प्राप्तिके लिए सर्वप्रथम सभी प्रयत्न करके सम्यक्त्वका आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि इसके होनेपर ही ज्ञान और चारित्र होते हैं। इन्होंने जीवादि तत्त्वोंके विपरीताभिनिवेश-रहित श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा। निर्विचिकित्सा अंगके वर्णनमें यहाँ तक कहा कि इस अंगके धारकको मल-मूत्रादि को देखकर ग्लानि नहीं करनी चाहिए। उपगृहनादि शेष चार अंगोंका स्व और परकी अपेक्षा किया गया वर्णन अपूर्व है।
सोमदेवसूरिने अपने समयमें प्रचलित सभी मत-मतान्तरोंकी समीक्षा करके उनका निरसन कर सत्यार्थ आप्त, आगम और पदार्थों के श्रद्धानको सम्यक्त्व और अश्रद्धानको मिथ्यात्व कहा। सम्यक्त्वके सराग-वीतरागरूप दो भेदोंका, उपशमादिरूप तीन भेदोंका और आज्ञा, मार्ग आदि दश भेदोंका वर्णनकर उसके २५ दोषोंको बतलाकर आठों अंगोंका वर्णन प्रसिद्ध पुरुषोंके विस्तृत कथाओंके साथ किया । प्रस्तुत संग्रहमें कथा भाग छोड़ दिया गया है। . चामुण्डरायने जिनोपदिष्ट मोक्षमार्गके श्रद्धानको सम्यक्त्वका स्वरूप बतलाकर सम्यक्त्वी जीवके संवेग, निर्वेग, आत्मा-निन्दा, आत्म-गर्हा, शमभाव, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य गुणोंका भी निरूपण किया।
आ० अमितगतिने अपने उपासकाचारके दूसरे अध्यायमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति, और उसके भेदोंका विस्तृत स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि वीतराग सम्यक्त्वका लक्षण उपेक्षाभाव है और सराग सम्यक्त्वका लक्षण प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भावरूप है। इनका बहुत सुन्दर विवेचन करते हुए सम्यक्त्वके श्रद्धा भक्ति आदि आठ गुणोंका वर्णनकर अन्तमें लिखा है कि जो एक अन्तर्मुहूर्तको भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं वे भी अनन्त संसारको सान्त कर लेते हैं।
आ० वसुनन्दिने सम्यक्त्वका स्वरूप बताकर कहा है कि उसके होनेपर जीवमें संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशमभाव, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण प्रकट होते हैं। वस्तुतः सम्यक्त्वी पुरुषको पहिचान ही इन आठ गुणोंसे होती है ।
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