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________________ श्रावक-धर्मके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको सदासे उपासकाध्ययन ही कहा जाता रहा है। पीछे लोग अपने बोलनेकी सुविधाके लिए श्रावकाचार नामका व्यवहार करने लगे। आचार्य सोमदेवने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ यशस्तिलकके पाँचवें आश्वासके अन्तमें 'उपासकाध्ययन' कहनेकी प्रतिज्ञा की है । यथा इयता ग्रन्थेन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रु तपठितमुपासकाध्ययनम् ॥ अर्थात् इस पांचवें आश्वास तक तो मैंने महाराज यशोधरका चरित कहा। अब इससे द्वादशांग-श्रुत-पठित उपाकाध्ययनको कहूंगा। - दिगम्बर-परम्परामें श्रावक-धर्मका प्रतिपादन करनेवाले जितने श्रावकाचार हैं, उन सबका संकलन प्रस्तुत संग्रहमें कर लिया गया है। उसके अतिरिक्त स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षाकी धर्मभावनामें, तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्याय, आदिपुराणके ३८, ३९, ४०वें पर्वमें, यशस्तिलकके ६, ७, ८वें आश्वासमें, तथा प्रा० सं० भावसंग्रहमें भी श्रवकधर्मका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। उनका भी संकलन प्रस्तुत संग्रहमें है । श्वेताम्बर-परम्परामें उपासकदशासूत्र, श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। ४. श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार उपलब्ध जैन वाङ्मयमें श्रावक-धर्मका वर्णन तीन प्रकारसे पाया जाता है :१. ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर । २. बारह व्रत और मारणान्तिकी सल्लेखनाका उपदेश देकर । ३. पक्ष, चर्या और साधनका प्रतिपादन कर। (१) उपर्युक्त तीनों प्रकारों से प्रथम प्रकारके समर्थक या प्रतिपादक आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कात्तिकेय और वसुनन्दि आदि रहे हैं। इन्होंने अपने-अपने ग्रन्थोंमें ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर ही श्रावक-धर्मका वर्णन किया है। आ० कुन्दकुंदने यद्यपि श्रावक-धर्मके प्रतिपादनके लिए कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ या पाहुडकी रचना नहीं की है, तथापि चारित्र-पाहडमें इस विषयका वर्णन उन्होंने गाथाओं द्वारा किया है। यह वर्णन अति संक्षिप्त होनेपर भी अपने-आपमें पूर्ण है और उसमें प्रथम प्रकारका स्पष्ट निर्देश किया गया है। स्वामी कात्तिकेयने भी श्रावक धर्मपर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रत्ना है, पर उनके नामसे प्रसिद्ध 'अनुप्रेक्षा' में धर्मभावनाके भीतर श्रावक धर्मका वर्णन बहुत कुछ विस्तारके साथ किया है। इन्होंने भी बहुत स्पष्ट रूपसे सम्यग्दर्शन और ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर ही शावक धर्मका वर्णन किया है। स्वामिकात्तिकेयके पश्चात् आ० वसुनन्दिने भी उक्त सरणिका अनुसरण किया। इन तीनों ही आचार्योने न अष्ट मूल गुणोंका वर्णन किया है और न बारह व्रतोंके अतीचारोंका ही । प्रथम प्रकारका अनुसरण करनेवाले आचार्योंमेंसे स्वामिकात्तिकेयको छोड़कर शेष सभीने सल्लेखनाको चौथा शिक्षाक्त माना है। . . उक्त तीनों प्रकारोंमेंसे यह प्रथम प्रकार ही आद्य या प्राचीन प्रतीत होता है, क्योंकि धवला और जयधवला टीकामें आ० वीरसेनने उपासकाध्ययन नामक अंगका स्वरूप इस प्रकार दिया है १. उवासयज्झयणं णाम अंगं एक्कारस लक्ख-सत्तरि सहस्सपदेहिं 'दंसण वद..."इदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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