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श्रावकाचारमें कहींपर भी न ग्यारह प्रतिमाओंका नामोल्लेख है और न स्पष्टरूपसे कहींपर भी श्रावकोंके अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप बारह व्रतोंका ही निर्देश किया गया है।
पाँचवें आचार्य कुन्दकुन्दने अपने अध्यात्म ग्रन्थोंमें पापके समान पुण्यको भी हेय बताकर उसके त्यागका ही उपदेश किया है, जब प्रस्तुत श्रावकाचारमें स्थान-स्थानपर पुण्यके उपार्जनकी प्रेरणा पायी जाती है।
इन सब कारणोंसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रस्तुत श्रावकाचार प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्दके द्वारा नहीं रचा गया है। किन्तु परवर्ती किती कुन्दकुन्द-नामधारी व्यक्तिके द्वारा रचा गया है।
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