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________________ । ५२ ) (२३) ऋतुकालमें स्त्री-सेवनका विधान । (पं० उ० श्लोक १७८-१८३ ) (२४) शरीरमें वीर्यवृद्धिके लिए वृष्ययोगका निरूपण । (५० उ० श्लोक २००-२०१ ) (२५) छहों ऋतुओंके आहार-विहारादिका वर्णन । (पूरा छठा उल्लास ) (२६) अर्थोपार्जनकी प्रेरणा । ( पूरा सातवाँ उल्लास ) (२७) गृहस्थजीवनमें आवश्यक देशाटक, शकुन अपशकुन, गृह- निर्माण, वास्तु-शुद्धि, आयज्ञान, गुरु-शिष्य-लक्षण, लौकिक शास्त्रोंके अध्ययनकी प्रेरणा, संगीत और कामशास्त्रकी उपयोगिता, सर्पोके भेद, स्वरूप और उनके विषादिका विस्तृत वर्णन आदि । ( अष्टम उल्लास श्लोक १-२४० )। (२८) विवेकपूर्वक वचनोच्चारण, निरीक्षण-प्रकार और गमनादिक वर्णन । अष्टम उ० श्लोक ३०६-३५०) इस प्रकारके वर्णन प्रसिद्ध समयसारादि अध्यात्म ग्रन्थोंके प्रणेता श्री कुन्दकुन्दाचार्यके द्वारा किया जाना कभी संभव नहीं है । भट्टारकोंको उनके भक्त लोग 'स्वामी' शब्दसे अभिहित करने लगे थे, अतः यही जान पड़ता है कि इस श्रावकाचारकी रचना कुन्दकुन्दाचार्यके नामपर किसी भट्टारकके द्वारा की गई है। इसके रचयिता जैनदर्शन और धर्मसम्बन्धी अध्ययन बिलकुल साधारण-सा प्रतीत होता है, इसका अनुभव 'षट्दर्शन विचार' शीर्षकके अन्तर्गत जैनदर्शनके वर्णनसे पाठकोंको स्वयं होगा। जहाँपर कि पुण्यका अन्तर्भाव संवरतत्त्वमें किया गया है । ( भा० ४ पृ० ९७ श्लोक २४९) प्रसिद्ध कुन्दकुन्दाचार्यने अपने सर्वाधिक प्रसिद्ध समयसारके प्रारम्भमें ही 'सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा' कहकर जिस काम-भोग-बन्धकथाको त्यागकर शुद्ध आत्माका निरूपण अपने समयसारमें किया है उनसे इस प्रकार अर्थ और कामपुरुषार्थका वर्णन होना सम्भव नहीं है। दूसरे आचार्य कुन्दकुन्दके सभी ग्रन्थ प्राकृत भाषामें रचित हैं और उनकी गाथाएँ परवर्ती अनेक आचार्योंके द्वारा अपने-अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत पायी जाती हैं। परन्तु प्रस्तुत श्रावकाचारका एक भी श्लोक किसी ग्रन्थमें उद्धृत नहीं पाया जाता है। तीसरे आचार्य कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंमें किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थोंसे कुछ भी उद्धरण देनेका उल्लेख नहीं किया है, जबकि प्रस्तुत श्रावकाचारमें स्पष्ट शब्दोंके द्वारा सर्वशास्त्रोंके सारको निकालकर अपने ग्रन्थ-निर्माण करनेका उल्लेख किया है। उनके इस कथनका जब पूर्व-रचित जैन ग्रन्थोंके साथ मिलान करते हैं, तब किसी भी पूर्व-रचित जैन ग्रन्थसे सार लेकर ग्रन्थका रचा जाना सिद्ध नहीं होता है, प्रत्युत अनेक जैनेतर ग्रन्थोंका सार लेकर प्रस्तुत ग्रन्थका रचा जाना ही सिद्ध होता है। चौथे आचार्य कुन्दकुन्दने अपने चारित्र पाहुडमें ग्यारह प्रतिमाओंका नाम-निर्देश करके श्रावकधर्मके १२ व्रतोंका केवल नामोल्लेखमात्र करके वर्णन किया है, जबकि प्रस्तुत सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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