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________________ प्रस्तावना १. सम्यग्दर्शन श्रावकधर्मका ही नहीं, अपितु मुनिधर्मका भी मूल आधार सम्यग्दर्शन ही है। इसलिए सभी श्रावकाचारोंमें सर्व प्रथम इसीका वर्णन किया गया है। किन्तु इसके विषयमें स्वामी समन्तभद्रने जिस प्रकारसे उस पर प्रकाश डालकर धर्म-धारकोंका उद्बोधन किया है, और सरल एवं विशद रीतिसे उसका वर्णन किया है, वह अनुपप एवं अनुभव-पूर्ण है। उनके जीवनमें जो उत्तर-चढ़ाव आया और जैसी घटनाएँ घटी, उन सब पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने सम्यग्दर्शनका स्वरूप, उसके अंग और दोष बताकर उसे निर्दोष पालन करनेकी प्रेरणा करते हुए सम्यक्त्वकी महिमा बतानेके साथ किसी भी प्रकारके गर्व करनेवालों पर जो प्रहार किया है, वह सचमुच अद्वितीय है। स्वामी समन्तभद्रने अपने पूर्ववर्ती कुन्दकुन्दाचार्यके समान न निश्चय सम्यक्त्वकी चर्चा की, और न उमास्वातिके समान तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यक्त्वका निरूपण किया। किन्तु परमार्थ स्वरूप आप्त (देव) तत्प्रतिपादित आगम और निर्ग्रन्थ गुरुओंका तीन मूढ़ताओं और आठ मदोंसे रहित एवं आठ अंगोंसे युक्त होकर श्रद्धान करनेको सम्यग्दर्शन कहा है। यहाँ 'आप्त' पद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि उसके स्थान पर 'देव' शब्द कहते, तो स्वर्गादिके देवोंका ग्रहण संभव था, यदि 'ईश्वर' का प्रयोग करते तो उससे शश्वत्कर्म-विमुक्त अनादिनिधन माने जानेवाले सनातन परमेश्वर या ‘महेश्वर' आदिका ग्रहण संभव था। और यदि इसी प्रकारके किसी अन्य शब्दको कहते तो उससे अवतार लेनेवाले, सृष्टि-(जन्म) और संहार करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिका ग्रहण संभव था। अतः उन सबका व्यवच्छेद करनेके लिए उन्होंने 'आप्त' पदका प्रयोग किया। इस आप्तके स्वरूपमें प्रयुक्त उत्सन्न-दोष (वीतराग) सर्वज्ञ और आगमेशी (सार्व, शास्ता या हितोपदेशी) ये तीनों ही विशेष विशेषण अपूर्व हैं। 'उत्सन्न दोष' इस पदसे सभी रागी-द्वेषी, जन्म-मरण करनेवाले एवं क्षुधा-पिपासादि दोषोंसे युक्त सभी प्रकारके देवोंका निराकरण किया गया है, 'सर्वज्ञ' पदसे अल्पज्ञानियोंका और 'आगमेशी' पदसे स्वकल्पित या कपोल-कल्पित शास्त्रज्ञोंका निराकरण कर यह प्रकट किया है कि जो सार्व अर्थात् सर्व प्राणियोंके हितका उपदेशक हो, वही आप्त हो सकता है इन तीन विशिष्ट गुणोंके बिना 'आप्तता' संभव नहीं है। यह 'आप्त' पद उन्हें कितना प्रिय था, कि उसकी मीमांसा स्वरूप देवागमस्तोत्र नामसे प्रसिद्ध 'आप्तमीमांसा' की रचना की है। आगम या शास्त्रके लक्षणको बतलाते हुए कहा है कि जो आप्त-प्रणीत हो, वादी या प्रतिवादीके द्वारा अनुल्लंघनीय हो, प्रत्यक्ष-अनुमानादि किसी भी प्रमाणसे जिसमें विरोध या बाधा न आती हो, प्रयोजनभूत तत्वोंका उपदेशक हो और कुमार्गोका उन्मूलन करनेवाला हो, ऐसा हितोपदेशी शास्तारूप आप्तके द्वारा कथित शास्त्र ही आगम कहला सकता है, इसके विपरीत जिसके प्रणेताका ही पता नहीं, ऐसे हिंसा-प्रधान वेदादिको आगम नहीं माना जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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