________________
३२. पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार-पं० गोविन्द धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोंका वर्णन कर उन्हें किस प्रकारसे पालन करना चाहिए, इसका अनुशासन करनेसे ग्रन्थका 'पुरुषार्थानुशासन' यह नाम सर्वथा सार्थक है। इसमें धर्म पुरुषार्थका वर्णन श्रावक और मुनिके आश्रयसे किया गया है । उसमेंसे श्रावकके आश्रयसे किये गये धर्मका संकलन प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें किया गया है ।
पुरुषार्थानुशासनमें अध्याय या परिच्छेदके स्थान पर 'अवसर' नामका प्रयोग किया है। प्रथम 'अवसर' में चारों पुरुषार्थोंकी विशेषताओंका दिग्दर्शन है और दूसरे 'अवसर' में पुराणोंके समान राजा श्रेणिकका भ० महावीरके वन्दनार्थ जाने और 'मनुष्य जन्मको सार्थकताके लिए किस प्रकारका आचरण करना चाहिए', इस प्रकारका प्रश्न पूछनेपर गौतम गणधर-द्वारा पुरुषार्थोंके वर्णनरूप कथा-सम्बन्धका वर्णन है। अतः इन दो को छोड़ कर तीसरे 'अवसर' से छठे 'अवसर' का अंश संगृहीत है। जिसका सार इस प्रकार है
तीसरे अवसरमें-धर्मका स्वरूप और फल बताकर ११ प्रतिमाओंके आधार पर श्रावक धर्मका वर्णन, सभी व्रतों और शीलोंमें सम्यग्दर्शनकी प्रधानता, देव-शास्त्र-गुरु और धर्मका स्वरूप, सम्यक्त्वका स्वरूप और भेदोंका वर्णन, आठों अंगोंका वर्णन और २५ दोषोंका वर्णन कर अन्तमें सम्यक्त्वकी महिमाका वर्णन दर्शनप्रतिमामें किया गया है ।
चौथे अवसरमें-आठों मूलगुणोंका वर्णन कर मद्य-मांसादिके सेवनके दोषोंका विस्तृत निरूपण, सप्त व्यसनोंके दोष बताकर उनके त्यागका उपदेश, रात्रि-भोजनकी निन्द्यताका वर्णन, पाँच अणुव्रत, तोन गुणव्रत, और भोगोपभोग एवं अतिथिसंविभाग इन दो शिक्षा व्रतोंका वर्णन व्रतप्रतिमाके अन्तर्गत किया गया है।
पाँचवें अवसरमें-सामायिक प्रतिमाके अन्तर्गत सामायिकका स्वरूप बताकर उसे द्रव्य, क्षेत्रादिकी शुद्धि-पूर्वक करनेका विधान है । इसके बत्तीस दोष बताकर उनसे रहित ही सामायिक करनेका उपदेश देकर पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत धर्मध्यानका विस्तृत निरूपण कर उनके चिन्तनका विधान किया गया है।
छठे अवसरमें चौथी प्रोषधप्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तककी ८ प्रतिमाओंका बहुत सुन्दर एवं विशद वर्णन किया गया है । अनुमति त्यागी किस प्रकारके कार्योंमें अनुमति न दे, और किस प्रकारके कार्यों में देवे, इसका विस्तृत वर्णन पठनीय है । ग्यारहवीं प्रतिमाका वर्णन बिना भेदके ही किया गया है। अन्तमें समाधिमरणका निरूपण कर श्रावक धर्मका वर्णन समाप्त किया गया है।
परिचय और समय पुरुषार्थानुशासनके अन्तमें ग्रन्थकारने जो बृहत्प्रशस्ति दी है, उससे ज्ञात होता है कि मूल संघमें भट्टारक श्री जिनचन्द्र, उनके पट्टपर मलयकीत्ति और उनके पट्ट पर कमलकीति आचार्य हुए। उनके समयमें कायस्थोंके माथुर वंशमें श्री अमर सिंह हुए। उनके पुत्र लक्ष्मण हुए। उन्होंने अग्रवाल जातिके गार्ग्य गोत्रोत्पन्न पं० गोविन्दसे इस पुरुषार्थानुशासन नामक ग्रन्थकी रचना करायी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org