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( ४८ ) संस्कृत भावसंग्रहके अतिरिक्त इन्होंने १ प्रतिष्ठासूक्ति संग्रह, २ त्रैलोक्य-दीपक, ३ त्रिलोकसार पूजा, ४ तत्त्वार्थसार, ५ श्रुतज्ञानोद्यापन और ६ मन्दिरसंस्कार पूजन नामक ६ ग्रन्थोंको भी रचा है।
त्रैलोक्यदीपककी प्रशस्तिके अनुसार पं० वामदेवका कुल नैगम था। नैगम या निगम कुल कायस्थोंका है। इससे ये कायस्थ जातिके प्रतीत होते हैं।
३१. रयणसार-आचार्य कुन्दकुन्द (?) कुछ इतिहासज्ञ विद्वान् रयणसारको आचार्य कुन्दकुन्द-रचित नहीं मानते हैं, किन्तु अभी वीर निर्वाण महोत्सवपर प्रकाशित और डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित रयणसार ताड़पत्रीय प्रतिके आधारपरसे कुन्दकुन्द-रचित ही सिद्ध किया गया है। परम्परासे भी वह इनके द्वारा ही रचित माना जाता है। इसमें रत्नत्रयधर्मका वर्णन करते हुए श्रावक और मुनिधर्मका वर्णन किया गया है, उसमेंसे प्रस्तुत संग्रहमें केवल श्रावकधर्मका वर्णन ही संकलित किया गया है।
इसके प्रारम्भमें सुदृष्टि और कुदृष्टिका स्वरूप बताकर सम्यग्दृष्टिको आठ मद, छह अनायतन, आठ शंकादि दोष, तीन मूढ़ता, सात व्यसन, सात भय और पाँच अतीचार इन चवालीस दोषोंसे रहित होनेका निर्देश किया गया है। आगे बताया गया है कि दान, शील, उपवास और अनेक प्रकारका तपश्चरण यदि सम्यक्त्व सहित हैं, तो वे मोक्षके कारण हैं, अन्यथा वे दीर्घ संसारके कारण हैं। श्रावकधर्ममें दान और जिन-पूजन प्रधान हैं और मुनिधर्ममें ध्यान एवं स्वाध्याय मुख्य हैं । जो सम्यग्दृष्टि अपनी शक्तिके अनुसार जिन-पूजन करता है और मुनियोंको दान देता है, वह मोक्षमार्गपर चलनेवाला और श्रावकधर्मका पालनेवाला है। इससे आगे दानका फल बताकर कहा गया है कि जिस प्रकार माता गर्भस्थ बालकी सावधानीसे रक्षा करती है, उसी प्रकारसे निरालस होकर साधुओंकी वैयावृत्य करनी चाहिए। इससे आगे जो वर्णन है उसका सार इस प्रकार है-जीर्णोद्धार, पूजा-प्रतिष्ठादिसे बचे हुए धनको भोगनेवाला मनुष्य दुर्गतियोंके दुःख भोगता है । दान-पूजादिसे रहित, कर्तव्य-अकर्तव्यके विवेकसे हीन एवं क्रूर-स्वभावी मनुष्य सदा दुःख पाता है। इस पंचम कालमें मिथ्यात्वी श्रावक और साधु मिलना सुलभ है, किन्तु सम्यक्त्वी श्रावक और साधु मिलना दुर्लभ है। इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त अज्ञानीकी अपेक्षा इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त ज्ञानी श्रेष्ठ है। गुरुभक्ति-विहीन अपरिग्रही शिष्योंका तपश्चरणादि ऊषर भूमिमें बोये गये बीजके समान निष्फल है। उपशमभाव पूर्वोपार्जित कर्मका क्षय करता है और नवीन कर्मों का आस्रव रोकता है। मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकारके शारीरिक कष्टोंको सहन करता है, परन्तु मिथ्यात्वको नहीं छोड़ता। फिर मोक्ष कैसे पा सकता है ? इस प्रकार रत्नत्रयधर्ममें सारभूत सम्यग्दर्शनका माहात्म्य बतलाकर इस ग्रन्थका 'रयणसार'( रत्नसार ) यह नाम सर्वथा सार्थक रखा गया है ।
अभी तक किसी भी आधारसे रयणसारको अन्य आचार्य-रचित होना प्रमाणित नहीं हुआ है, अतः उसे कुन्दकुन्द-रचित मानने में कोई बाधा नहीं है। समयसार प्रवचनसार आदिसे पूर्वकी यह उनको प्रारम्भिक रखना होनी चाहिए।
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