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________________ ( ७) परिचय और समय देवसेनने भावसंग्रहको अन्तिम प्रशस्तिमें रचना-काल नहीं दिया है किन्तु दर्शनसारके अन्तमें दी गई प्रशस्तिके अनुसार उसे वि० सं० ९९० में रच कर पूर्ण किया है। कुछ इतिहासज्ञ भावसंग्रहके कर्ता देवसेनको दर्शनसारके कर्तासे भिन्न मानते हैं । किन्तु श्वेताम्बर-मतकी उत्पत्तिवाली दोनों ग्रन्थोंकी समानतासे दोनोंके रचयिता एक ही व्यक्ति सिद्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त वसुनन्दिने अपने श्रावकाचारमें 'अतो गाथाषट्कं भावसंग्रहात्' लिखकर 'संकाइदोसरहियं आदि छह गाथाओंको उद्धृत कर अपने श्रावकाचारका अंग बनाया है, इससे भावसंग्रह वसुनन्दिसे पूर्व रचित सिद्ध है। वसुनन्दीका समय विक्रमकी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दीका मध्यकाल है अतः दर्शनसारके कर्ता देवसेन ही भावसंग्रहके कर्ता सिद्ध होते हैं । इनके द्वारा रचित १ दर्शनसार, २ भावसंग्रह, ३ आराधनासार, ४ तत्त्वसार, ५ लघुनयचक्र और ६ आलाप पद्धति ये छह ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इतिहासज्ञ विद्वान् देवसेन-द्वारा रचित ग्रन्थोंका रचना-काल वि० सं०९९० से लेकर वि० सं० १०१२ तक मानते हैं, अतः इनका समय विक्रमको दशवीं शतीका अन्तिम चरण और ग्यारहवीं शतीका प्रथम चरण सिद्ध होता है। ३०. संस्कृत भावसंग्रह-ात श्रावकाचार-पं० वामदेव देवसेनके प्राकृत भावसंग्रहका आधार लेकर पं० वामदेवने संस्कृत भावसंग्रहकी रचना की है। उसके पंचम गुणस्थानवाले वर्णनको प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें संकलित किया गया है । इसकी विशेषता यह है कि इसमें ग्यारह प्रतिमाओंके आधार पर श्रावकधर्मका वर्णन किया गया है। सामायिक शिक्षावतके अन्तर्गत जिन-पूजनका विधान और उसकी विस्तृत विधिका वर्णन प्राकृत भाव संग्रहके ही समान किया गया है। अतिथिसंविभागवतका वर्णन दाता, पात्र, दान विधि और देय वस्तुके साथ विस्तारसे किया गया है। तीसरी प्रतिमाधारीको 'यथाजात' होकर सामायिक करनेका विधान किया गया है। शेष प्रतिमाओंका वर्णन परम्पराके अनुसार ही है। प्रतिमाओंके वर्णनके पश्चात् देवपूजा-गुरूपास्ति आदि षट् कर्तव्योंका, पूजाके भेदोंका, चारों दानोंका वर्णन कर भोगभूमिके सुखोंका वर्णन किया गया है और बताया गया है कि भद्र मिथ्यादृष्टि जीव अपने दानके फलानुसार यथा योग्य उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमियों एवं कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं । अन्तमें पुण्योपार्जन करते रहनेका उपदेश दिया गया है। प्राकृत भावसंग्रहमें पंचम गुणस्थानका वर्णन जहां २५० गाथाओंमें किया गया है, वहाँ इस संस्कृत भावसंग्रहमें १७९ श्लोकोंमें ही किया गया है, यह भी इसकी एक विशेषता है। प्रतिमाओंके वर्णन पर रत्नकरण्डके अनुसरणका स्पष्ट प्रभाव है, पर इसमें ग्यारहवीं प्रतिमाघारीके दो भेदोंका उल्लेख किया गया है। प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भावसंग्रहोंमें व्रतोंके अतीचारोंका कोई वर्णन नहीं है। परिचय बौर समय __ सं• भावसंग्रहकी प्रशस्तिके अनुसार पं० वामदेव मुनि लहमीचन्द्रके शिष्य थे। वामदेवने अपने समयका कोई उल्लेख नहीं किया है पर इनके द्वारा रचित 'त्रैलोक्य-दीपक' की जो प्रति योगिनीपुर (दिल्ली) में लिखी गई है उसमें लेखनकाल वि० सं० १४३६ दिया हुआ है, अतः इससे पूर्वका ही इनका समय सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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