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________________ ( ४६ ) करते हुए कहा है कि उनके होनेपर ही पूजन-अभिषेक आदि पुण्य कार्योंका होना संभव है । इस प्रकारसे संक्षेपमें श्रावकके कर्तव्योंका विधान इसमें किया गया है। इसे प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें संकलित किया गया है । परिचय और समय यद्यपि पद्मनन्दी नामके अनेक आचार्य हुए हैं। तथापि उनमें जंबूदीवपण्णत्तीके कर्ताको प्रथम और पंचविंशतिकाके कर्त्ताको द्वितीय पद्मनन्दी इतिहासज्ञोंने माना है और अनेक आधारोंसे छान बीनकर इनका समय विक्रमकी बारहवीं शताब्दी निश्चित किया है। • . इनकी रचनाओंका संग्रह यद्यपि पंचविंशतिकाके नामसे प्रसिद्ध है, तो भी उसमें ये २६ रचनाएँ संकलित हैं— १. धर्मोपदेशामृत, २. दानोपदेशन, ३ अनित्य पञ्चाशत्, ४ एकत्वसप्तति, ५. यतिभावनाष्टक, ६, उपासक संस्कार, ७ देशव्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ९ आलोचना, १०. सद्बोधचन्द्रोदय, ११. निश्चयपञ्चाशत्, १२. ब्रह्मचर्य रक्षावति, १३. ऋषभस्तोत्र, १४. जिनदर्शनस्तवन, १५. श्रुतदेवतास्तुति, १६ स्वयम्भूस्तुति, १७ सुप्रभाताष्टक, १८ शान्तिनाथस्तोत्र, १९. जिनपूजाष्टक, २०. करुणाष्टक, २१. क्रियाकाण्डचूलिका, २२. एकत्वभावनादशक, २३. परमार्थविंशति, २४. शरीराष्टक, २५. स्नानाष्टक और २६. ब्रह्मचर्याष्टक । इसमें प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें छठी और सातवीं रचना संग्रहीत है । २९. प्राकृत भावसंग्रह- गत श्रावकाचार - श्री देवसेन । आचार्य देवसेनने अपने भावसंग्रहमें चौदह गुणस्थानोंके आश्रयसे औपपादिक आदि भावोंके वर्णनके साथ प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम गुणस्थानोंके स्वरूप आदिका विस्तृत वर्णन किया है । उसमें से प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें पाँचवें गुणस्थानका वर्णन संकलित किया गया है। प्रारंभमें पंचम गुणस्थानका स्वरूप बताकर आठ मूलगुणों और बारह व्रतोंका निर्देश किया गया है । यतः आरम्भी-परिग्रही गृहस्थ के आर्त- रौद्रध्यानकी बहुलता रहती है, अतः उसे धर्म-ध्यानकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न करना आवश्यक बताकर उसके चारों भेदोंका निरूपण किया गया है । पुनः धर्मध्यानके सालम्ब और निरालम्ब भेद बताकर और गृहस्थके निरालम्ब ध्यानकी प्राप्ति असंभव बताकर पंचपरमेष्ठी आदिके आश्रयसे सालम्ब ध्यान करनेका उपदेश दिया गया है । इस सालम्ब ध्यानके लिए देवपूजा, जिनाभिषेक, सिद्धचक्र यंत्र, पंचपरमेष्ठी यंत्र आदिकी आराधना करनेका विस्तृत वर्णन किया गया है । तदनन्तर श्रावकके बारह व्रतोंका वर्णन करते हुए दानके भेद, दानका फल, पात्र-अपात्रका निर्णय और पुण्यके फलका विस्तारसे वर्णन कर अन्तमें भोगभूमिके सुखोंका वर्णन किया गया है। देव- पूजनके वर्णनमें शरीर शुद्धि, आचमन और सकलीकरणका विधान है । अभिषेकके समय अपनेमें इन्द्रत्वकी कल्पनाकर और शरीरको आभूषणोंसे मंडित कर सिंहासनको सुमेरु मानकर उसपर जिन-बिम्बको स्थापन करने, दिग्पालोंका आह्वान करके उन्हें पूजन- द्रव्य आदि यज्ञांश प्रदान करनेका भी विधान किया गया है। इसी प्रकरणमें पूजनके आठों द्रव्योंके चढ़ानेके फलका भी वर्णनकर पूर्वमें आहूत देवोंके विसर्जनका निर्देश किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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