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________________ किन्तु अगालित जल पीनेवाला बिना निमित्तके ही जीवघात करता है। ( तृतीय भाग, पृ० ३७५ श्लोक ८५ ) २. दर्शनाचारसे हीन स्ववंशज एवं स्वजातीय व्यक्तिके घरी भोज्य वस्तु और भाण्डे बर्तनादि भी ग्राह्य नहीं हैं । ( तृतीय भा० पृ० ३७७ श्लोक १०६ ) ३. प्रथम स्वर्ग, प्रथम नरक और सद्मावासी ( भवनवासी ) की जघन्य आयु 'अयुत' प्रमाण कही है, वह आगम-विरुद्ध है ( तृतीय भाग, पृ० ३८८ श्लोक २२९) ४. देव-पूजनके पूर्व मुख शुद्धि और शरीर शुद्धि करके अपनेमें इन्द्रका संकल्पकर देवप्रतिमाके स्थापनके बाद दिग्पालोंके आह्वान और क्षेत्रपाल-युक्त यक्ष-यक्षीका स्थापन और सकलीकरणका विधान किया गया है । ( तृतीय भाग, ३९६ श्लोक ३४९-३५१) . परिचय और समय ___इस श्रावकाचारके रचयिता श्री जिनदेव हैं, उन्होंने अपने नामका उल्लेख प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें स्वयं किया है और अपनी इस रचनाको भट्टारक जिनचन्द्रके नामसे अंकित किया है। ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिसे जिनदेवका कोई विशेष परिचय नहीं मिलता। केवल उनके विद्यागुरु यशोधर कवि ज्ञात होते हैं। भट्टारक जिनचन्द्र सम्भवतः जिनदेवके दीक्षागुरु रहे हैं। यदि ये जिनचन्द्र पं० मेघावीके गुरु हैं, तो ये पं० मेधावीके समकालिक सिद्ध होते हैं। पं० मेधावीका समय विक्रमकी सोलहवीं शताब्दी है । और यदि ये जिनचन्द्र पं० मेधावीके गुरुसे भिन्न हैं, तो फिर जिनदेवका समय विचारणीय हो जाता है। जिनदेवकी अन्य रचनाका अभी तक कोई पता नहीं लगा है। २८. पंचविंशतिका गत श्रावकाचार-श्री पद्मनन्दी आचार्य पद्मनन्दीकी पंचविंशतिका प्रसिद्ध है। उसका 'उपासक संस्कार' नामक प्रकरण प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें संकलित है । इसमें गृहस्थके देवपूजादि षट्कर्तव्योंका वर्णन करते हुए सामायिककी सिद्धिके लिए सप्त व्यसनोंका त्याग आवश्यक बताया गया है। तत्पश्चात् श्रावकके १२ व्रतोंके पालनेका, वस्त्र-गालित जल पीनेका और रात्रिभोजन-परिहारका उपदेश दिया गया है। विनयको मोक्षका द्वार बताकर विनय-पालनकी, दानहीन घरको कारागार बताकर दान देनेकी और दयाको धर्मका मूल बताकर जीव-दया करनेकी प्रेरणाकर बारह भावनाओंके चिन्तन और यथाशक्ति क्षमादि दश धर्मके पालनका उपदेश देकर इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। . देशवतोद्योतन यह भी उक्त पंचविंशतिकाका एक अध्याय है। इसमें सर्वप्रथम सम्यक्त्वी पुरुषकी प्रशंसा और मिथ्यात्वकी निन्दाकर सम्यक्त्वको प्राप्त करनेका उपदेश दिया गया है। तत्पश्चात् रात्रिभोजन-त्याग, गालित-जलपान और बारह व्रत-पालनका उपदेश देकर देवपूजनादि कर्तव्योंको नित्य करनेकी प्रेरणा करते हुए चारों दानोंके देनेका उपदेश देकर कहा गया है कि दानसे ही गृहस्थापना सार्थक है और दान ही संसार-सागरसे पार करनेके लिए जहाजके समान है। दानके बिना गृहाश्रम पाषाणकी नावके समान है। अन्तमें जिनचैत्य और चैत्यालयोंके निर्माणकी प्रेरणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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