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________________ .. ( ४४ ) रात्रिमें अशन-पानका निषेध करते हुए परमतके जो श्लोक दिये गये हैं, वे मननीय हैं। ( देखो भा० ३ पृ० ३४१-३४२ श्लोक ९७ से ११९) इस श्रावकाचारमें स्थल-विशेषोंपर जो सूक्तियाँ दी गई हैं, वे पठनीय हैं। समय और परिचय पद्मनन्दिने अपने इस श्रावकाचारको 'वासाधर' नामके किसी गृहस्थ-विशेषके लिए रचा है और उसीके नामसे अङ्कित किया है जैसे कि प्रत्येक परिच्छेदकी अन्तिम पुष्पिकाओंसे सिद्ध है । ये वासाधर लमेंचू जातिके थे यह अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है। दूसरे परिच्छेदके प्रारम्भमें जो आशीर्वाद रूप पद्य दिया है, उससे ज्ञात होता है कि वासाधर जिनागमके वेत्ता, पात्रोंको दान देनेवाले, विनयी जीवोंके रक्षक, दयाशील और सम्यग्दृष्टि थे । पुरी प्रशस्ति इस भागके परिशिष्टमें दी गई है। प्रस्तुत श्रावकाचारके अन्तमें दी गई प्रशस्तिके अनुसार पद्मनन्दि श्रीप्रभाचन्द्रके शिष्य थे, इतना ही ज्ञात होता है । 'भट्टारक सम्प्रदाय' में विभिन्न आधारोंसे बताया गया है कि इनका पद्राभिषेक वि० सं० १३८५ में हआये १५ वर्ष ७ माह १३ दिन घरपर रहे। पीछे दीक्षित होकर १३ वर्ष तक ज्ञान और चारित्रकी आराधना करते रहे। २९ वर्षकी अवस्था में ये प्रभाचन्द्रके पट्टपर आसीन हुए और ६५ वर्ष तक पट्टाधीश बने रहे । इस प्रकार इनका समय विक्रमको चौदहवीं शतीका पूर्वार्ध सिद्ध होता है। __ इन्होंने प्रस्तुत श्रावकाचारके सिवाय वर्धमानचरित, अनन्तव्रतकथा, भावनापद्धति और जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तवनकी रचना की है। २७. भव्यधर्मोपदेश-उपासकाध्ययन-श्री जिनदेव इस श्रावकाचारमें छह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें भरत क्षेत्र, मगध देश और राजा श्रेणिकका वर्णन, भ० महावीरका विपुलाचलपर पदार्पण, राजा श्रेणिकका वन्दनार्थ गमन, धर्मोपदेश श्रवण और इन्द्रभूति गणधर-द्वारा श्रावकधर्मका प्रारम्भ कराया गया है। गणधर देवने ११ प्रतिमाओंका निर्देशकर सर्वप्रथम दर्शन प्रतिमाका निरूपण किया, इस प्रतिमाधारीको निर्दोष अष्ट अङ्ग युक्त सम्यग्दर्शन धारण करनेके साथ अष्टमूल गुणोंका पालन, रात्रि-भोजन और सप्त व्यसन-सेवनका त्याग, आवश्यक बताया गया है। दूसरे परिच्छेदमें जीवादिक तत्त्वोंका वर्णन किया गया है। तीसरे परिच्छेदमें जीवतत्त्वका आयु, शरोर-अवगाहना, कुल, योनि आदिके द्वारा विस्तृत विवेचन किया गया है। चौथे परिच्छेदमें व्रत-प्रतिमाके अन्तर्गत श्रावकके १२ व्रतोंका और सल्लेखनाका संक्षिप्त वर्णन है, पाँचवें परिच्छेदमें सामायिक प्रतिमाके वर्णनके साथ ध्यान पद्धतिका वर्णन है। छठे परिच्छेदमें प्रोषध प्रतिमाका विस्तारसे और शेष प्रतिमाओंका संक्षेपसे वर्णन किया गया है । अन्तमें ग्रन्थ प्रशस्ति दी गई है। इस श्रावकाचारको कुछ विशेषताएँ १. दर्शन प्रतिमाधारीको रात्रिभोजन और अगालित जलपानका त्याग आवश्यक बताते हुए कहा है कि मत्स्य पकड़नेवाला धीवर तो आजीविकाके निमित्तसे जीवधात करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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