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________________ ४. लाटी संहिता-प्रशस्ति किमिदमिह किलास्ते नाम संवत्सरादि, नरपतिरपि कः स्यादत्र साम्राज्यकल्पः । कृतमपि कमिदं भो केन कारापितं यत्. शृणु तदिति वदद्धि स्तूयतेऽथ प्रशस्तिः ॥१॥ (घी) नृपतिविक्रमादित्यराज्ये परिणते सति । सहैकचत्वारिंशद्धिरब्दानां शतषोडश ॥२॥ तत्रापि चाश्विनीमासे सितपक्षे शुभान्विते । दशम्यां च दाशरथे शोभने रविवासरे ॥३॥ अस्ति साम्राज्यतुल्योऽसौ भूपतिश्चाप्यकब्बरः। महद्भिर्मण्डलेशश्च चुम्बिताध्रिपदाम्बुजः ॥४॥ अस्ति बैगम्बरो धर्मो जैनः शम्र्मेककारणम् । तत्रास्ति काष्ठासंघश्च क्षालितांहःकदम्बकः ॥५॥ तत्रापि माथुरो गच्छो गणः पुष्करसंज्ञकः । लोहाचार्यान्वयस्तत्र तत्परंपरया यथा ॥६॥ नाम्ना कुमारसेनोभूद्भट्टारकपदाधिपः । तत्पट्टे हेमचन्द्रोऽभूभट्टारकशिरोमणिः ॥७॥ तत्पट्टे पद्मनन्दी च भट्टारकनभोंऽशुमान् । तत्पट्ट ऽभूभट्टारको यशस्कोतिस्तपोनिधिः ॥८॥ तत्पट्टे क्षेमकोतिः स्यादव भट्टारकाप्रणोः । तदाम्नाये सुविख्यातं पत्तनं नाम डौकनि ॥९॥ तत्रत्यः बावको भारू भास्तिस्रोऽस्य धार्मिकाः । कुलशीलवयोरुप-धर्मबुद्धिसमन्विताः ॥१०॥ नाम्ना तत्रादिमा मेघी द्वितीया नाम रूपिणी । रत्नगर्भा धरित्रीव तृतीया नाम देविला ॥११॥ प्रशस्ति का अनुवाद यह लाटीसंहिता नामका ग्रंथ किस संवत्में बना है ? उस समय सम्राट्के समान कौन राजा था? यह ग्रन्थ किसने बनाया और किसने बनवाया? उस सबको प्रशस्ति कहता हूँ तुम लोग सुनो ॥१॥ श्रीविक्रम संवत् सोलहसौ इकतालीसमें आश्विन शुक्ला दशमी रविवारके दिन अर्थात् विजया दशमीके दिन यह ग्रन्थ समाप्त हुआ ॥२-३॥ उस समय सम्राट्के समान बादशाह अकबर राज्य करता था। उस समय बड़े-बड़े मंडलेश्वर राजा लोग उसके चरणकमलोंको नमस्कार करते थे ||४|| इस संसार में आत्माका कल्याण करनेवाला दिगम्बर जैनधर्म है। उस जैनधर्ममें भी पापरूपी कीचड़को घोनेवाला एक काष्ठासंघ है ।।५।। उसमें भी माथुर गच्छ है, पुष्कर गण है और लोहाचार्यकी आम्नाय है। उसी परम्परामें एक कुमारसेन नामके भट्टारक हुए थे तथा उन्हींके पट्टपर भट्टारकोंमें शिरोमणि ऐसे हेमचन्द्रनामक भट्टारक बैठे थे॥६-७॥ उनके पट्टपर भट्टारकोंके समुदायरूपी आकाशमें सूर्यके समान चमकनेवाले पद्मनंदि भट्टारक हुए थे तथा उनके पट्टपर बड़े तपस्वी यशस्कीर्तिनामके भट्टारक हुए थे |८| उनके पट्टपर भट्टारकोंमें मुख्य ऐसे क्षेमकीर्तिनामक भट्टारक हुए थे। उन्हीके समयमें यह ग्रन्थ बना है। क्षेमकीर्ति भट्टारकको आम्नायमें एक डोकनिनामका नगर था। उस डोकनिनगरका रहनेवाला एक नारू नामका श्रावक था। उसके तीन स्त्रियाँ थीं जो अच्छी धार्मिक थीं। वे तीनों स्त्रियाँ कुलीन थी, शीलवती पी, रूपवती थीं, अच्छी आयुवाली थीं, धर्मको धारण करनेवाली थीं और बुद्धिमती थीं ॥९-१०॥ पहली स्त्रीका नाम मेघी था, दूसरीका नाम रूपिणी था और रत्नोंको उत्पन्न करनेवाली वसुमती पृथ्वीके समान तीसरी स्त्री थी उसका नाम देविला था ॥१२॥ ऊपर लिखे हुए भारूनामक सेठके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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