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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार - प्रशस्ति सुधीः क्रियाद्यत्नममुष्य रक्षणे तैलानलाम्भः परहस्तयोगतः । जानन् कविश्रान्तिमथ प्रवर्तने भूयात्समुत्कश्च परोपकृद्यतः ॥४०॥ चतुर्दश शतान्यस्य चत्वारिंशोत्तराणि वै । सर्व प्रमाणमावेद्यं लेखकेन त्वसंशयम् ॥४१॥ इति सूरिश्री जिनचन्द्रान्तेवासिना पण्डितमेधाविना विरचितः धर्मसङ्ग्रहश्रावकाचारः समाप्तः । Jain Education International कविके परिश्रमको जानकर इस शास्त्रके पढ़नेवाले सुधीजन इसकी तेल, अग्नि जल और पर-हस्तमें जानेसे संरक्षण करनेमें यत्न करें । तथा इसके प्रचार-प्रसादके प्रवर्तन में सम्यक् प्रकारसे उत्सुक रहें। क्योंकि यह ग्रन्थ दूसरोंका उपकारक है ||४०|| २३१ इस ग्रन्थका परिमाण चौदह सौ चालीस (१३४० ) श्लोक- प्रमाण है, यह बात शास्त्र -लेखकको निश्चित रूपसे जानना चाहिए ॥ ४१ ॥ इस प्रकार श्री जिनचन्द्रके शिष्य पंडित मेधावी द्वारा रचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार की प्रशस्ति समाप्त हुई । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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