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________________ का उल्लेख है, अतः यह बहुत पीछे रचा गया है, जब कि उनके समय तक अनेक श्रावकाचार रचे जा चुके थे। दूसरे इस श्रावकाचारमें पुरुषार्थसिद्धयुपाय, यशस्तिलक-उपासकाध्ययन, श्वे० योगशास्त्र, विवेकविलास और धर्मसंग्रह श्रावकाचारके अनेक श्लोक ज्योंके त्यों अपनाये गये हैं और अनेक श्लोक शब्द परिवर्तनके साथ रचे गये हैं। श्वे० योगशास्त्रके १५ खर कर्म वाले श्लोक भी साधारणसे शब्द-परिवर्तनके साथ ज्योंके त्यों दिये गये हैं। इन सबसे यह सिद्ध है कि यह तत्त्वार्थ त्रकार-रचित नहीं है। किन्तु पं० मेधावी-जिन्होंने अपना धर्मसंग्रहश्रावकाचार वि० सं० १५४ में रच कर पूर्ण किया है-उनसे भी पीछे सोलहवीं-सत्तरहवीं शताब्दीके मध्य किसी इसी नामधारी भट्टारकने रचा है, या अन्य नामधारी भट्टारकने रचकर उमास्वामीके नामसे अंकित कर दिया है, जिससे कि इसमें वर्णित सभी बातों पर प्राचीनताकी मुद्रा अंकित मानी जा सके । इस श्रावकाचारमें अन्य कितनी ही ऐसी बातें हैं, जिन परसे पाठक सहजमें ही इसकी अर्वाचीनताको स्वयं ही जान सकेंगे। प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागमें इसके संकलनका उद्देश्य यह है कि पाठक स्वयं यह अनुभव कर सकें कि स्वामी समन्तभद्रके पश्चात् समय-परिवर्तनके साथ किस-किस प्रकारसे श्रावकके आचारमें क्या क्या वृद्धि होती रही है। यही बात पूज्यपाद और कुन्दकुन्दके नामसे अंकित श्रावकाचारोंके विषयमें भी समझनी चाहिए। इस श्रावकाचारमें अध्याय विभाग नहीं है। प्रारम्भमें धर्मका स्वरूप बताकर सम्यक्त्वका साङ्गोपाङ्ग वर्णन है । पुनः देवपूजादि श्रावकके षट् कर्तव्योंमें विभिन्न परिमाणवाले जिनबिम्बके पूजनेके शुभ-अशुभ फलका वर्णन है । तथा इक्कीस प्रकार वाला पूजन, पंचामृताभिषेक, गुरूपास्ति आदि शेष आवश्यक. १२ तप और दानका विस्तृत वर्णन है। तत्पश्चात् सम्यग्ज्ञानका वर्णन कर सम्यक् चारित्रके विकल भेदरूप श्रावकके ८ मूलगुणों और १२ उत्तर व्रतोंका, सल्लेखनाका और सप्त व्यसनोंके त्यागका उपदेश देकर इसे समाप्त किया गया है। ग्रन्थके अन्तिम श्लोकमें कहा है कि इस सम्बन्धमें जो अन्य ज्ञातव्य बातें हैं, उन्हें मेरे द्वारा रचे गये अन्य ग्रन्थमें देखना चाहिए । यथा इति वृत्तं यथोद्दिष्टं संश्रये षष्ठकेऽखिलम् । चान्यन्मया कृते ग्रन्थेऽन्यस्मिन् द्रष्टव्यमेव च ॥४७७॥ पर अभी तक इनके द्वारा रचित किसी अन्य ग्रन्थका पता नहीं लगा है। इस श्रावकाचारकी कुछ विशेष बातें१. सौ वर्षसे अधिक प्राचीन वंगित भी प्रतिमा पूज्य है। (भा० ३ पृ. १६१ श्लोक १०८) २. प्रातः पूजन कपूरसे, मध्याह्नमें पुष्पोंसे और सायंकाल दीप धूप से करे। ___(भा० ३ पृ० १६३ श्लोक १२५-१२६) ३. फूलोंके अभावमें पीले अक्षतोंसे पूजन करे। (भा० ३ पृ० १६३ श्लोक १२९) ४. अभिषेकार्थ दूधके लिए गाय रखे, जलके लिए कूप बनवाये और पुष्पोंके लिए वाटिका (बगीची) बनवावे (भा० ३ पृ. १६३ श्लोक १३३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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