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________________ । ४० ) ५. प्रातःकालीन पूजन पाप विनाशक, मध्याह्निक पूजन लक्ष्मी कारक और सन्ध्याकालीन पूजन मोक्ष-कारक है। (भा० ३ पृ० १६७ श्लोक १८१) एक विचारणीय वर्णन इस श्रावकाचारमें २१ प्रकारके पूजनके वर्णनमें आभूषण-पूजन और वसन-पूजनका भी उल्लेख किया गया है। यह स्पष्टतः श्वेताम्बर-परम्परामें प्रचलित मूर्ति पूजनका अनुकरण है। क्योंकि दिगम्बर परम्परामें कभो भो वस्त्र और आभूषणोंसे पूजन करनेका प्रचार नहीं रहा है। सभी श्रावकाचारोंमेंसे केवल इसीमें इस प्रकारका वर्णन आया है, जो कि अत्यधिक विचारणीय है। (देखो भा० ३ पृ० १६४ श्लोक १३६) इस श्रावकाचारमें तीसरे भागके पृष्ठ १६० परके श्लोक १०० से लेकर १०३ तकके ४ श्लोक श्वेताम्बरीय आचार दिनकरसे लिये गये ज्योंके त्यों पाये जाते हैं। केवल भेद यह है कि इसमें सौवें श्लोकका पूर्वार्ध श्लोक १०३ के स्थान पर है इससे भी उपर्युक्त वस्त्र और आभूषण पूजनका वर्णन श्वेताम्बरीय पूजनके अनुकरणको सिद्ध करता है। उमास्वामि-श्रावकाचारके अन्तमें आये श्लोकाङ्क ४६४ के 'सूत्रे तु सप्तमेऽप्युक्ताः पृथङ् नोक्तास्तदर्थतः' इस पदसे, तथा श्लोकाङ्क ४७३ के 'गदितमतिसुवोधोपास्त्यकं स्वामिभिश्च इस पदसे जो लोग इस श्रावकाचारका रचयिता सूत्रकार उमास्वामीको मानते है, सो यह उनका भ्रम है । इसके लिए निम्नलिखित तीन प्रमाण पर्याप्त हैं १. प्रारम्भमें पूर्व-प्रणीत श्रावकाचारोंको देखकर रचनेका उल्लेख । २. सोमदेवके उपासकाध्ययन, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि अनेक ग्रन्थोंके श्लोकोंका ज्योंका त्यों बिना नामोल्लेखके अपनाना। ३. श्रावकाचारसारोद्धारके दो सौ से अधिक श्लोकोंको अपना करके भी अन्तमें उसके श्लोकके २-३ पदोंका परिवर्तन करके अपने बनानेका उल्लेख करना । यथा इति दुरितदुरोधं श्रावकाचारसारं गदितमतिसुबोधोपास्त्यकं स्वामिभिश्च । विनयभरनताङ्गाः सम्यगाकर्णयन्तु विशदमतिमवाप्य ज्ञानयुक्ता भवन्तु ॥४७६॥ (उमास्वामि श्रावकाचार भा० ३ पृ० १९१) इति हतदुरितीर्घ श्रावकाचारसारं गदितमवधिलीलाशालिना गौतमेन । विनयभरनताङ्गः सम्यगाकणं हर्ष विशदमतिरवाप श्रेणिकः क्षोणिपालः ॥३७॥ (श्रावकाचारसारोद्धार, भा० ३ पृ. ३६८) आचार्य पद्मनन्दीने अपने श्रावकाचार-सारोद्धारको उत्थानिकामें जैसे श्रेणिकके प्रश्न पर गौतम-गणधरके द्वारा श्रावक-धर्मका वर्णन प्रारम्भ कराया है, उसी प्रकार ग्रन्थके अन्तमें उन्हीं ऋषिकका उल्लेख करते हुए उसे समाप्त किया है, जो कि स्वाभाविक है । उमास्वामि श्रावकाचारमें कोई अन्तिम प्रशस्ति नहीं है। तथा कुछ अनिरूपित विषयोंको अपने द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ में देखनेका उल्लेख मात्र किया है। पर श्रावकाचारसारोद्धारमें पयनन्दीने विस्तृत प्रशस्ति दी है और जिसके लिए उसे रचा है उसका भी परिचय दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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