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________________ ( ३८ ) लाटीसंहिता के प्रथम सर्गमें अष्ट मूलगुणोंके धारण करने और सप्त व्यसनोंके त्यागका वर्णन है । दूसरे सर्गमें सम्यग्दर्शनका सामान्य स्वरूप भी बहुत सूक्ष्म एवं गहन - गाम्भीर्यसे वर्णन किया गया है । तीसरे सर्गमें सम्यग्दर्शनके आठों अंगोंका विस्तृत विवेचन है । चौथे सर्गमें अहिंसाणुव्रतका विस्तृत वर्णन है । पंचम सर्गमें शेष चार अणुव्रतोंका और गुणव्रत - शिक्षाव्रतके भेदोंका और सल्लेखनाका वर्णन है । छठे सर्ग में सामायिकादि शेष प्रतिमाओंका और द्वादश तपोंका निरूपण किया गया है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि राजमल्लजीने श्रावकधर्मका वर्णन ११ प्रतिमाओंके आधारपर ही किया है । यद्यपि श्रावकव्रतों का वर्णन परम्परागत ही है, तथापि प्रत्येक व्रतके विषय में उठनेवाली शंकाओंको स्वयं उद्भावन करके उसका सयुक्तिक और सप्रमाण समाधान किया है । लाटीसंहिताकारने व्रती श्रावकको घोड़े आदिकी सवारीका निषेध किया है । ( देखो - भा० ३ पृ० १०४, श्लोक २२४ ) इन्होंने ही ग्यारहवीं प्रतिमावाले दोनों भेदोंको सर्वप्रथम, 'क्षुल्लक' और 'ऐलक' नामों उल्लेख किया । ( भा० ३ पृ० २४६, श्लोक ५५ ) प्राणियोंपर दया करना व्रतका बाह्यरूप है और अन्तरंगमें कषायोंका त्याग होना व्रतका अन्तरंगरूप है । ( भा० ३, पृ० ८२ श्लोक ३८ आदि ) परिचय और समय प्रस्तुत लाटीसंहिताके अतिरिक्त राजमल्लजीने जम्बूस्वामिचरित, अध्यात्मकमल मार्तण्ड और पिंगलशास्त्र रचा है। पंचाध्यायीकी रचनाका संकल्प करके भी वे उसे पूरा नहीं कर सके । उसके डेढ़ अध्यायको ही रच पाये । उसके भी श्लोकोंकी संख्या ( ७६८-११४५ ) १९१३ है । राजमल्लजी इसे कितना विशाल रचना चाहते थे, यह उनके प्रारम्भमें दिये 'ग्रन्थराज' पदसे स्पष्ट है । जब डेढ़ अध्यायमें ही लगभग दो हजार श्लोक हैं, तब पंचाध्यायी पूरी रचे जानेपर तो उसके श्लोकोंकी संख्या दश हजारसे ऊपर ही होती । जम्बूस्वामिचरितकी रचना वि० सं० १६३२ के चैत कृष्णा अष्टमीके दिन समाप्त हुई है । अतः इनका समय विक्रमकी सत्तरहवीं शतीका मध्य भाग जानना चाहिए । २२. उमास्वामिश्रावकाचार - उमास्वामी (?) उमास्वामीके नाम पर किसी भट्टारकने इस श्रावकाचारकी रचना की है । तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता उमास्वामी या उमास्वातिकी यह रचना नहीं है, क्योंकि इसको प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरणके बाद दूसरे श्लोक में कहा गया है कि मैं पूर्वाचार्य प्रणीत श्रावकाचारोंको भली भाँतिसे देखकर इस श्रावकाचारकी रचना करूँगा । वह श्लोक इस प्रकार है पूर्वाचार्यप्रणीतानि श्रावकाध्ययनान्यलम् । दृष्ट्वाऽहं श्रावकाचारं करिष्ये मुक्तिहेतवे ॥२॥ तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामीसे पहिले रचे गये किसी भी श्रावकाचारका अभी तक कहीं कोई उल्लेख नहीं प्राप्त हुआ है और इस उक्त श्लोकमें स्पष्ट रूपसे पूर्वाचार्य-प्रणीत श्रावकाचारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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