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________________ । ३७) श्री ब्रह्मनेमिदत्तने परिग्रह परिमाण व्रतके अतीचार स्वामी समन्तभद्रके समान ही कहे हैं। तथा रात्रिभोजन त्यागको छठा अणुव्रत कहा है। इस श्रावकाचारमें ३५ गाथाएँ और श्लोक 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किये गये हैं, जिनमें रत्नकरण्डक, वसुनन्दि श्रावकाचार, गो० जीवकाण्ड, सावयधम्मदोहा, यशस्तिलक, द्रव्यसंग्रह और एकीभाव स्तोत्रके नाम उल्लेखनीय हैं। सबसे अधिक उद्धृत दोहे सावयधम्मदोहाके हैं। समय और परिचय इस श्रावकचारको अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि भट्टारक श्री विद्यानन्दिके पट्टपर भट्टारक मल्लिभूषण हुए। उनके शिष्य मुनि सिंहनन्दि हुए और उनके शिष्य ब्रह्मनेमिदत्तने इस श्रावकाचारकी रचना की। भट्टारक सम्प्रदायके अनुसार भ० विद्यानन्दिका समय वि० सं० १४९९ से लगाकर १५३७ तक है और उनके शिष्य मल्लिभूषणका समय १५४४ से १५.५ तकका दिया गया है। अतः मल्लिभूषणके शिष्य सिंहनन्दिका समय उनके बादका ही होना चाहिए। ब्रह्मनेमिदत्तकी इस श्रावकाचारके अतिरिक्त जो रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-१. आराधना कथाकोश, २ नेमिनाथ पुराण, ३. श्रीपालचरित, ४ सुदर्शनचरित, ५. रात्रिभोजन कथा, ६. प्रीतिकर मुनिचरित, ७. धन्यकुमारचरित, ८ नेमिनिर्माण काव्य,९. नागकुमार कथा, १०. मालारोहणी और ११. आदित्यवार व्रतरास । यद्यपि ब्रह्मनेमिदत्तने उक्त श्रावकाचारके अन्तमें रचनाकाल नहीं दिया है, नथापि इन्होंने वि० सं० १५७५ में आराधना कथाकोश और वि० सं० १५८५ में नेमिपुराणको रचकर पूर्ण किया है । अतः उक्त भट्टारकपरम्पराके पट्टकालोंके साथ इनके समयका निर्णय हो जाता है। तदनुसार इनका समय विक्रमको सोलहवीं शतीका उत्तरार्ध निश्चित रूपसे ज्ञात होता है। आराधना कथाकोशको प्रशस्तिमें ब्रह्मनेमिदत्तने भ० मल्लिभूषणका गुरुरूपसे स्मरण किया है। २१. लाटीसंहिता-श्री राजमल्ल जैन सिद्धान्तके गम्भीर अभ्यासी श्री राजमल्लने लाटीसंहिताके प्रत्येक सर्गके अन्तमें जो पुष्पिका दी है, उसमें इसे 'श्रावकाचार अपर नाम लाटीसंहिता' दिया है, तो भी उनका यह श्रावकाचार लाटीसंहिताके नामसे ही प्रसिद्धिको प्राप्त हआ है। लाट देशमें प्रचलित गहस्थ-धर्म या जैन आचार-विचारोंका संग्रह होनेसे इसका लाटीसंहिता नाम स्वयं राजमल्लजीने रखा है। जैसा कि इसकी प्रशस्तिके ३८ वें श्लोकके द्वितीय चरणसे स्पष्ट है। 'तेनोच्चः कारितेयं सदनसमचिता संहिता नाम लाटी' अर्थात्-संघपति फामनने गृहस्थके योग्य इस लाटीसंहिताको निर्माण कराया। लाटीसंहितामें ७ सर्ग हैं। उनमेंसे प्रथमसर्गमें वैराट नगर, अकबर बादशाह, काष्ठासंधी भट्टारक-वंश और उनके वंशधरों द्वारा बनाये गये जिनालय आदिका विस्तृत वर्णन है। प्रस्तुत संग्रहमें उपयोगी न होनेसे उसका संकलन नहीं किया गया है और द्वितीय सर्गको प्रथम मानकर सर्ग-संख्या दी गई है। प्रशस्ति बहुत बड़ी होनेसे इस भागके परिशिष्टमें दी जा रही है। इससे अनेक नवीन बातों पर प्रकाश पड़ेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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