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________________ ( ३३ ) स्तोत्र टीका, ७. आराधनासार टीका, ८. अमरकोष टीका, ९. काव्यालंकार टीका, १०. सटीक सहस्रनामस्तवन, ११. सटीक जिनयज्ञकल्प, १२. क्रियाकलाप, १३. राजमतीविप्रलम्भ, १४. त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, १५. नित्यमहोद्योत, १६. रत्नत्रयविधान, १७ अष्टाङ्गहृदयोद्योतिनी टीका, १८. प्रमेयरत्नाकर और १९ भरतेश्वराभ्युदय काव्य । इस प्रकार प० आशाधरजीने विशाल परिमाणमें धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र, वैद्यक, अध्यात्म, पूजन- विधान एवं काव्य-साहित्यका सर्जन किया है। उनकी उक्त रचनाओंसे उनके महान् पाण्डित्यका परिचय मिलता है । उक्त ग्रन्थोंमेंसे प्रमेयरत्नाकर भरतेश्वराभ्युदय आदि रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं, जिनका अन्वेषण आवश्यक है। पं० आशाध रजीने अनगारधर्मामृत्तको प्रशस्तिमें उक्त ग्रन्थोंके रचे जानेकी सूचना दी है और उसकी स्वोपज्ञ टीका वि० सं १३०० में रचकर पूर्ण की है। संभवत: उनकी यही अन्तिम रचना है । अन्य रचनाएं वि० सं० १२६९ से लेकर वि० सं० १३०० के मध्य में हुई हैं। अतः उनका समय तेरहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निश्चित रूपसे जानना चाहिए । १७. धर्मसंग्रह श्रावकाचार – पं० मेघावी अपने पूर्ववर्ती समन्तभद्र, वसुनन्दि और आशाधरके श्रावकाचारोंका आश्रय लेकर पं० मेवावने अपने धर्मसंग्रह श्रावकाचारको रचना की है, ऐसा उन्होंने प्रशस्तिके श्लोक २३ में स्वयं उल्लेख किया है। पर यथार्थमें आशाधरके सागारधर्मामृतके प्रत्येक श्लोकके कुछ शब्द बदलकर पूर्णरूपसे अनुकरण किया है। हां कहीं-कहीं स्थान परिवर्तन अवश्य किया गया है। यथा(१) सागार० अ० २ - धर्मसन्ततिमक्लिष्टां रति वृत्तकुलोन्नतिम् । देवादिसत्कृति चेच्छन् सत्कन्यां यत्नतो वहेत् ॥ ६० ॥ धर्मसं० श्रा० अ० ६–कुलवृत्तोन्नति धर्मसन्तति स्वेच्छया रतिम् । देवादीष्टि च वाञ्छन् सत्कन्यां यत्नात्सदा वहेत् ॥ २०५ ॥ (२) सागार घ० अ० २ – सुकलत्रं विना पात्रे भूहेमादिव्ययो वृथा । कीटैर्ददश्यमानेऽन्तः कोऽम्बुसेकाद् द्रुमे गुणः ॥ ६१ ॥ धर्मसं० श्रा० अ० ६ - धर्मपत्नी विना पात्रे दानं हेमादिकं मुधा । कोर्बोभुज्यमानेऽन्तः कोऽम्भः सेकाद् गुणो द्रुमे ॥ २०६ ॥ उक्त दोनों उद्धृत श्लोकोंके अर्थमें कोई अन्तर नहीं है, केवल शब्द - परिवर्तन एवं स्थान परिवर्तन ही किया गया है। इसी प्रकार दोनों ग्रन्थोंका स्वाध्याय करनेवाले संस्कृतपाठी पाठक सागारघर्मामृतका अनुसरण सर्वत्र देखेंगे । प्रस्तुत श्रावकाचारका प्रारम्भ कथा-प्रन्थोंके समान मगधदेश तथा श्रेणिक नरेशके वर्णनसे किया गया है और इसी वर्णनमें प्रथम अधिकार समाप्त हुआ है। दूसरे अधिकारमें वनपाल द्वारा भ० महावीरके विपुलाचल पर पधारनेकी सूचना मिलने पर राजा श्रेणिकका भगवान्की वन्दनाको जानेका और समवशरणका विस्तृत वर्णन है । तीसरे अधिकारमें श्रेणिकका भगवान्‌को वन्दनास्तुति करके मनुष्यो कोठेमें बैठना और उपदेश सुनकर व्रत-नियमादिके विषयमें पूछने पर गौतम मणघर-द्वारा धर्मका उपदेश प्रारम्भ किया गया है। अतएव इस प्रस्तुत संग्रहमें उक्त तीन अधिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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