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________________ ( ३२ ) 'मूलं योगीन्द्रदेवस्य लक्ष्मीचन्द्रस्य पञ्जिका अर्थात् मूलग्रन्थ योगीन्द्र देवका और पंजिका लक्ष्मीचन्द्रकी है । यदि 'योगीन्द्र' पदको देवका विशेषण माना जावे तो इसे देवसेन -रचित माना जा सकता है, क्योंकि देवसेन - रचित भावसंग्रहकी अनेक गाथाओंका और इसके अनेक दोहोंका परस्पर बहुत सादृश्य पाया जाता है। देवसेनने अपना दर्शनसार वि० सं० ९९० में बनाकर समाप्त किया है । अतः उनका समय विक्रमको दशवीं शताब्दी निश्चित हैं । १६. सागारधर्मामृत - पं० आशाघर पण्डित-प्रवर आशाधरजीने अपनेसे पूर्ववर्ती समस्त दि० और श्वे० श्रावकाचार रूप समुद्रका मन्थन कर अपने 'सागारधर्मामृत' की रचना की है। किसी भी पूर्ववर्ती आचार्य द्वारा वर्णित कोई भी श्रावकका कर्तव्य इनके वर्णनसे छूटने नहीं पाया है । आपने श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले तीनों प्रकारोंका एक साथ वर्णन करते हुए उनके निर्वाहका सफल प्रयास किया है। आपने सोमदेव के उपासकाध्ययन और नीतिवाक्यामृतका, तथा हरिभद्रसूरिकी श्रावक प्रज्ञप्तिका भरपूर उपयोग किया है | व्रतोंके समस्त अतीचा रोंकी व्याख्या पर श्वे० आचार्योंकी व्याख्याका प्रभाव ही नहीं, बल्कि शब्दश: समानता भी है । उक्त कथनकी पुष्टिके लिए एक उद्धरण यहाँ दिया जाता है श्वे० उपासकदशासूत्र - थ्लगमुसावायवेरमणं पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा - कण्णालियं गोवालियं भोमालियं णासावहारो कूडसक्खेसंधिकरणे । इस सूत्र को हरिभद्रसूरिने इस प्रकारसे गाथाबद्ध किया हैश्वे० सावयपण्णत्ती -- थूलमुसावायस्स उ विरई दुच्चं स पंचहा होई । कन्ना-गो-भुआलिय-नासह रण - कूडसक्खिज्जे || २६०॥ सागारधर्मामृत -- कन्या- गो-क्ष्मालीक- कूटसाच्य न्यासापलापवत् । स्यात् सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ॥ अ० ४ श्लो० ४० ॥ हरिभद्रसूरिकी श्रावकप्रज्ञप्तिके उत्तरार्धको सागारधर्मामृतके श्लोकके पूर्वार्धमें लिया गया है और चतुर्थ चरणमें रत्नकरण्डकके श्लोक ५५ के द्वितीय चरणको अपनाया गया है। उक्त सावयपण्णत्तीपर हरिभद्रसूरिने स्वोपज्ञ संस्कृत टीका भी लिखी है, उसमें व्रतों के अतोचारोंकी जैसी व्याख्या की गई है, और परवर्ती श्वे० हेमचन्द्र आदिने अतीचारोंका जिस रूपसे वर्णन किया है, उसे आशाधरजीने ज्यों का त्यों अपना लिया है। इसके लिए अचौर्य और ब्रह्मचर्य अणुव्रतके अतीचारोंकी व्याख्या खास कर अवलोकनीय है । सप्त व्यसनोंके एवं अष्टमूलगुणोंके अतीचारोंका वर्णन सागारधर्मामृत के पूर्ववर्ती किसी भी श्रावकाचार नहीं पाया जाता । श्रावककी दिनचर्या और साधककी सल्लेखनाका वर्णन भी बहुत सुन्दर किया गया है । सागारधर्मामृत यथार्थ में श्रावकोंके लिए धर्मरूप अमृत ही है । पं० आशाधरजीने सटीक सागारधर्मामृतके अतिरिक्त १. सटीक अनगारधर्मामृत, २. ज्ञान दीपिका पंजिका, ३. अध्यात्मरहस्य, ४. मूलाराघनाटीका, ५. इष्टोपदेशटीका, ६, भूपालचतुर्विंशति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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