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________________ ( २९ ) वर्णनमें अतिचारोंकी व्याख्या भी की है। गुणव्रत और शिक्षाव्रतको शीलसप्तक कहा है । उनके नाम तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार हैं । पांच अनर्थ दण्डोंका वर्णन रत्नकरण्डकके आधारपर है। बारह व्रतोंके वर्णनके पश्चात् कहा गया है कि हिंसादि पंच पापोंसे रहित पुरुषको द्यूत, मद्य और मांस-सेवनका अवश्य परिहार करना चाहिए। इन तीनोंके सेवन करके महा दुःख पानेवालोंके कथानक भी दिये गये हैं। __सामायिकादि शेष प्रतिमाओंका वर्णन रत्नकरण्डके ही समान है। केवल छठी प्रतिमाका वर्णन दिवा ब्रह्मचारीके रूपमें किया गया है । ग्यारहवीं प्रतिमाके भेद न करके उसे एक शाटकधर, भिक्षाभोगी पाणिपात्रसे बैठकर खानेका विधान किया गया है । उसे रात्रि प्रतिमादि विविध तपका धारक और आतापनादि योगसे रहित होना चाहिए। __ उक्त ग्यारह प्रतिमाओंके आधारपर श्रावकधर्मका वर्णन करनेके पश्चात् महापुराणके अनुसार पक्ष, चर्या और साधनका वर्णन तथा सोमदेवके उपासकाध्ययनका श्लोक उद्धतकर श्रावकके ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक इन चार आश्रमोंका वर्णनकर ब्रह्मचारीके उपनय, अवलम्ब, दीक्षा, गूढ और नैष्ठिकके रूपमें पाँच प्रकारोंका स्वरूप दिया गया है। तदनन्तर महापुराणके अनुसार इज्या, वार्ता आदि षट् कर्तव्योंका वर्णनकर जिनरूपधारी भिक्षुओंके अनगार, यति, मुनि और ऋषि ये चार भेद बताकर उनके स्वरूपको भी कहा गया है। अन्तमें मारणान्तिकी सल्लेखनाका वर्णन किया गया है। परिचय और समय चामुण्डराय महाराज मारसिंह राजमल्ल द्वितीयके प्रधान मंत्री थे। इन्होंने अनेक युद्धोंमें विजय प्राप्तकर 'वोरमार्तण्ड, रणरङ्गसिंह, समर धुरन्धर और वैरिकुल कालदण्ड' आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त की थीं। श्री अजितसेन और नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीसे आगम और सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन करके जो धार्मिक आचरण किया था उसके फलस्वरूप इन्हें 'सम्यक्त्वरत्नाकर', शौचाभरण और सत्ययुधिष्ठिर' जैसी उपाधियोंसे अलंकृत किया गया था। इनकी कनड़ी मातृभाषा थी और उसमें उन्होंने 'त्रिषष्टिपुराण' रचा तथा संस्कृत भाषाके पारंगत विद्वान् थे, इसमें गद्य रूपसे श्रावक और मुनिधर्मके साररूप चारित्रसार लिखा। चामुण्डरायने अपने उक्त पुराणको शक सं० ९०० में पूर्ण किया और श्रवणबेलगोलामें बाहुबलीकी संसार-प्रसिद्ध मूर्तिकी प्रतिष्ठा उसके तीन वर्ष बाद की। अतः इनका समय विक्रमकी दशवीं शतीका पूर्वार्ध निश्चित है। १४. वसुनन्दि श्रावकचार-आचार्य वसुनन्दि आचार्य वसुनन्दि आचारधर्म और सिद्धान्त ग्रन्थोंके महान् विद्वान् थे। इन्होंने मुनिधर्मप्रतिपादक मूलाधारकी संस्कृत टीका रची और श्रावकधर्मका निरूपण करनेके लिए श्रावकाचार रचा। जो कि प्रस्तुत संग्रहके प्रथम भागमें संकलित है। __आचार्य वसुनन्दिने ग्यारह प्रतिमाओंको आधार बनाकर श्रावकधर्मका वर्णन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम दार्शनिक श्रावकको सप्त व्यसनोंका त्याग आवश्यक बताकर व्यसनोंके दुष्फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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