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________________ ( २८ ) यह देखकर आश्चर्य होता है कि श्रावकके बारह व्रतोंका वर्णन एक ही परिच्छेदमें किया गया है और श्रावकधर्मके प्राणभूत ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णनको तो एक स्वतन्त्र परिच्छेदकी भी आवश्यकता नहीं समझी गई है। मात्र ११ श्लोकोंमें बहुत ही साधारण ढंगसे उनका स्वरूप कहा गया है । स्वामी समन्तभद्रने भी एक-एक श्लोकके द्वारा ही एक-एक प्रतिमाका वर्णन किया है, पर वह सूत्रात्मक होते हुए भी बहुत विशद और गम्भीर है। प्रतिमाओंके नामोल्लेखनमात्र करनेका आरोप सोमदेवपर भी लागू है। इन्होंने प्रतिमाओंका वर्णन क्यों नहीं किया, यह बात विचारशणीय है। अमितगतिने सप्त व्यसनोंका वर्णन यद्यपि ४६ श्लोंकोंमें किया है, पर बहुत पीछे । यहाँ तक कि १२ व्रत, समाधिमरण और ११ प्रतिमाओंका वर्णन करनेके पश्चात् स्फुट विषयोंका वर्णन करते हुए । क्या अमितगति वसुनन्दिके समान सप्त व्यसनोंके त्यागको श्रावकका आदि कर्तव्य नहीं मानते थे? अमितगतिने गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके नामोंमें उमास्वातिका और स्वरूप वर्णनमें सोमदेवका अनुसरण किया है । पूजनके वर्णनमें देवसेनका अनुसरण करते हुए भी अनेक ज्ञातव्य बातें कही हैं । निदानके प्रशस्त-अप्रशस्त भेद, उपवासकी विविधता, आवश्यकोंमें स्थान, आसन, मुद्रा, काल आदिका वर्णन अमितगतिके श्रावकाचारको विशेषता है । यदि संक्षेपमें कहा जाये तो पूर्ववर्ती श्रावकाचारोंका दोहन और उनमें नहीं कहे गये विषयोंका प्रतिपादन करना ही अमितगतिका लक्ष्य रहा है। परिचय और समय अमितगतिके प्रस्तुत श्रावकाचारके अतिरिक्त सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा, सं० पंच संग्रह, आराधना, भावनाद्वात्रिशिका ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। तथा इनके द्वारा रची गई चन्द्रप्रज्ञप्ति, व्याख्या प्रज्ञप्ति और सार्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्तिका भी उल्लेख मिलता है, पर अभी तक वे अप्राप्त हैं। सुभाषितरत्नसंदोहकी रचना वि० सं० १०५० में और धर्मपरीक्षा वि० सं० १०७० में लिखकर समाप्त की है। प्रस्तुत श्रावकाचारके अन्तमें रचनाकाल नहीं दिया है, तो भी उक्त आधारसे विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध उनका समय सिद्ध है। १३. चारित्रसार-गत-श्रावकाचर-चामुण्डराय __श्रीचामुण्डरायने मुनि और श्रावकधर्मके प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थोंका दोहन करके गद्य रूपसे संस्कृतभाषामें चारित्रसार नामके ग्रन्थको रचना की है। उनमें से श्रावकधर्म-प्रतिपादक पूर्वार्ध प्रस्तुत संग्रहके प्रथम भागमें संगृहीत है। चारित्रसारमें ग्यारह प्रतिमाओंके आधारपर श्रावकधर्मका वर्णन किया गया है। दर्शन प्रतिमाका वर्णन करते हुए एक प्राचीन पद्य उद्धृत करके बताया गया है कि सम्यक्त्व संसार-सागरमें निर्वाण द्वीपको जानेवाले भव्य सार्थवाहके जहाजका कर्णधार है। इस प्रतिमाधारीको सप्त भयोंसे मुक्त और अष्ट अंगोंसे युक्त होना चाहिए । व्रत प्रतिमावालेको पंच अणुव्रतोंके साथ रात्रिभोजन त्याग नामके छठे अणुव्रतको धारण करनेका विधान करते हुए अपने कथनकी पुष्टिमें एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है। अणुव्रतोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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