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________________ ( २७ ) 'अकृत्वा वैश्वदेवं तु यो भुंक्ते ना यदि द्विजः । स मूढो नरकं याति' (स्मृतिचन्द्रिका पृ० २१३) किन्तु स्वयं सोमदेवको उक्त विधान जैन परम्परामें नहीं होनेसे खटकता रहा । इसलिए उसके बाद ही वे लिखते हैं एतद्विधिन धर्माय नाधर्माय तदक्रियाः। दर्भ पुष्पाक्षतश्रोत्रवन्दनादिविधानवत् ॥४४१॥ अर्थात्-डाभ, पुष्प, अक्षत आदिके विधानके समान होम, भूतबलि आदि करनेसे न तो धर्म होता है और नहीं करनेसे न अधर्म ही होता है। अन्तमें एक प्रकीर्णक-प्रकरण द्वारा अनेक अनुक्त या दुरुक्त बातोंका स्पष्टीकरण कर सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनको समाप्त किया है। समय और परिचय यशस्तिलकचम्पूकी अन्तिम प्रशस्तिके अनुसार सोमदेव देवसंघके आचार्य यशोदेवके प्रशिष्य और नेमिदेवके शिष्य थे । 'स्याद्वादाचलसिंह', 'तार्किक चक्रवर्ती' वादीभपंचानन, वाक्-कल्लोलपयोनिधि और कविकुल राजकुंजर आदि उपाधियोंसे वे विभूषित थे। इनके यशस्तिलकके सिवाय नोतिवाक्यामृत नामके दो अन्य ग्रन्थ भी मुद्रित हो चुके हैं। नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इन्होंने 'षण्णवतिप्रकरण', 'महेन्द्र-मातलि-संजल्प' और 'युक्तिचिन्तामणिस्तव' नामक ग्रन्थोंकी भी रचनाको थी, पर अभी तक ये उपलब्ध नहीं हुए हैं। सोमदेवने अपना यह उपासकाध्ययन शक सं० ८८१ में रचकर समाप्त किया है, तदनुसार इसका रचना-समय विक्रम सं० १०१६ है। सोमदेवके द्वारा रचे गये उक्त यशस्तिलकचम्पूके सिवाय नीतिवाक्यामृत और अध्यात्मतरङ्गिणो नामक दो ग्रन्थ और भी प्रकाशमें आ चुके हैं। इनके अतिरिक्त उनके द्वारा रचे गये 'युक्तिचिन्तामणिस्तव', 'त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प', 'षण्णवतिप्रकरण' और 'स्याद्वादोपनिषद्' नामके ग्रन्थोंके भी उल्लेख मिलते हैं, जिनसे उनकी अपूर्व विद्वत्ताका पता चलता है। अकेला यशस्तिलक ही भारतीय संस्कृत-साहित्यमें अपूर्व ग्रन्य है। १२ अमितगतिश्रावकाचार-आचार्य अमितगति आचार्य सोमदेवके पश्चात् संस्कृत साहित्यके प्रकाण्ड विद्वान् आचार्य अमितगति हुए हैं । इन्होंने विभिन्न विषयोंपर अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। श्रावकधर्मपर भी एक स्वतन्त्र उपासकाध्ययन बनाया है जो अमितगति-श्रावकाचार नामसे प्रसिद्ध है। इसमें १४ परिच्छेदोंके द्वारा श्रावकधर्मका बहुत विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। प्रथम परिच्छेदमें धर्मका माहात्म्य, दूसरेमें मिथ्यात्वकी अहितकारिता और सम्यक्त्वकी हितकारिता, तीसरेमें सप्ततत्त्व, चौथेमें आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि और ईश्वर-सृष्टिकर्तृत्वका खंडन किया गया है। अन्तिम तीन परिच्छेदोंमें क्रमशः शील, द्वादश तप और बारह भावनाओंका वर्णन है। मध्यवर्ती परिच्छेदोंमें रात्रिभोजन, अनर्थदण्ड, अभक्ष्य भोजन, तीन शल्य, दान, पूजा और सामायिकादि षट् आवश्यकोंका वर्णन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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