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________________ प्रचलित त्रिसन्ध्या पूजनका समन्वय करनेके लिए उन्होंने ऐसा किया है, क्योंकि सामाषिकके त्रिकाल करनेका विधान सदासे प्रचलित रहा है। जैसा कि समन्तभद्र द्वारा सामायिक प्रतिमाके वर्णनमें 'त्रिसन्ध्यमभिवन्दी' पद देनेसे स्पष्ट है। पूजनके इस प्रकरणमें सोमदेवने उसकी दो विधियोंका वर्णन किया है-एक तदाकार मूत्तिपूजन विधि और दूसरी अतदाकार सांकल्पिक पूजन विधि । प्रथम विधिमें स्नपन और अष्टद्रव्यसे अर्चन प्रधान है और द्वितीय विधिमें आराध्यदेवकी आराधना, उपासना या भावपूजा प्रधान है। सामायिकका काल यतः तीनों सन्ध्याएँ हैं अतः उस समय गृहस्थ गृह कार्योंसे निर्द्वन्द्व होकर अपने उपास्यदेवको उपासना करे, यही उसकी सामायिक है। इस प्रकरणमें सोमदेवने कालिक सामायिककी भावना करते हुए कहा है प्राविधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याह्नसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायन्तनोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन । अर्थात्-हे देव, मेरा प्रातःकालका समय तेरे चरणारविन्दके पूजन-द्वारा, मध्याह्नकाल मुनिजनोंके सम्मान करनेसे और सायंकाल तेरे आचरणके कीर्तनसे व्यतीत होवे। (देखो भा० १ पृ० १८५ श्लो० ५२९) सोमदेवके इस कथनसे एक और नवीन बात पर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि उनकी दृष्टिमें प्रातःकाल मौन-पूर्वक पूजनको, मध्याह्नमें भक्ति पूर्वक दिये गये मुक्तिदानको और सायंकाल किये गये स्तोत्र-पाठ, तत्त्व-चर्चा, आप्त-चरित चिन्तन आदिको गृहस्थकी त्रैकालिक सामायिक मान रहे हैं। अन्तमें शेष शिक्षाव्रतोंका वर्णन और ११ प्रतिमाओंका दो श्लोकोंमें नामोल्लेख कर अपने कथनका उपसंहार किया है। सोमदेवने पाँचवीं प्रतिमाका 'अकृषि क्रिया' और आठवीं पतिमाका 'सचित्तत्याग' नाम दिया है। प्रचलित दि० परम्पराके अनुसार 'सचित्तत्याग पाँचवीं और कृषि आदि आरम्भोंका त्याग आठवीं प्रतिमा है' पर सोमदेवके तर्क-प्रधान चित्तको यह क्रम नहीं जंचा कि कोई व्यक्ति सचित्त भोजन और स्त्रीका परित्यागी होनेके पश्चात् भी कृषि आदि पापारम्भवाली क्रियाओंको कर सकता है ? अतः उन्होंने आरम्भ त्यागके स्थान पर सचित्त त्यागको और सचित्त-त्यागके स्थानपर आरम्भ-त्याग प्रतिमाको गिनायो। श्वे० आचार्य हरिभद्रने भी सचित्तत्यागको आठवीं प्रतिमा माना है। सोमदेवके पूर्ववर्ती या परवर्ती किसी भी दि० आचार्य-द्वारा उनके इस मतको पुष्टि नहीं दिखायी देती हैं। सोमदेवसूरिने पूजनके प्रकरणमें गृहस्थोंके लिए कुछ ऐसे कार्य करनेको कहा है जिन पर कि ब्राह्मण धर्मका स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। जैसे-बाहिरसे आनेपर आचमन किये बिना घरमें प्रवेश करनेका निषेध और भोजनकी शुद्धिके लिए होम और भूतबलिका विधान । (देखो-भा० १ पृ० १७२ श्लोक ४३७ तथा ४४०) स्मृति ग्रन्थोंमें भोजनसे पूर्व होम और भूतबलिका विधान पाया गया है। भोज्य अन्नको अग्निमें हवन करना होम कहलाता है। तथा भोजनसे पूर्व प्रथम ग्रासको देवतादिके उद्देश्यसे निकालना बलि है। इनको स्मृतिकारोंने वैश्वदेव कहा है। उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि वैश्वदेवको नहीं करके यदि ब्राह्मण भोजन करता है, तो वह मूढ पुरुष नरक जाता है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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