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________________ ( २९ ) इयता ग्रन्येन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु वक्ष्ये श्रुतपठितमुपासकाध्ययनम् ॥ अर्थात्-यहाँ तकके ग्रन्थमें तो मैंने यशोधर राजाका चरित कहा। अब इससे आगे आगम-वर्णित उपासकाध्ययनको कहँगा। यद्यपि सोमदेवने यशोधर महाराजको लक्ष्य करके श्रावक-धर्मका वर्णन किया है, तथापि वह सभी भव्य पुरुषोंके निमित्त किया गया जानना चाहिए। इन्होंने धर्मका स्वरूप बताते हुए कहा कि जिससे अभ्युदय और निःश्रेयसकी प्राप्ति हो, वह धर्म है। गृहस्थका धर्म प्रवृत्तिरूप है और मुनिका धर्म निवृत्तिरूप होता है। पुनः सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्रको मोक्षका कारण बताकर उनका स्वरूप बतलाते हुए अन्य-मत-सम्मत मोक्षका स्वरूप बतलाते हुए प्रबल युक्तियोंसे उनका निरसन कर जैनाभिमत मोक्षका स्वरूप प्रतिष्ठित किया है। सोमदेवने आप्त आगम और पदार्थोके त्रिमूढतादि दोषोंसे विमुक्त और अष्ट अंगोंसे संयुक्त श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा। इस सन्दर्भ में आप्तके स्वरूपकी विस्तारके साथ मीमांसा करके आगम-वणित पदार्थों की परीक्षा की और मूढताओंका उन्मथन करके सम्यक्त्वके आठ अंगोंका एक नवीन ही शैलीसे वर्णन कर प्रत्येक अंगमें प्रसिद्ध व्यक्तियोंका चरित्र चित्रण किया। प्रस्तुत संकलनमें उनका कथा भाग छोड़ दिया गया है। इस आश्वासके अन्तमें सम्यक्त्वके भेदों और दोषोंका वर्णन कर सम्यक्त्वको महत्ता बतलायी और कहा कि सम्यक्त्वसे सुगति, ज्ञानसे कीति, चारित्रसे पूजा और तीनोंसे मुक्ति प्राप्त होती है। _दूसरे आश्वासमें तीन मकार और पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागको आठ मूलगुण बताते हुए कहा कि मांस-भक्षियोंमें दया नहीं होती, मद्य-पान करनेवालोंमें सत्य नहीं होता, तथा मधु और उदुम्बर-फलसेवियोंमें नृशंसताका अभाव नहीं होता। तदनन्तर श्रावकके १२ उत्तर गुणोंका नामोल्लेखकर पाँच अणुव्रतोंका स्वरूप और उनमें प्रसिद्ध पुरुषोंका वर्णन कर किया और कहा कि अहिंसाव्रतके रक्षार्थ रात्रि भोजन और अभक्ष्य वस्तु-भक्षणका त्याग आवश्यक है। इस प्रकरणमें उन्होंने यज्ञोंमें की जानेवाली पशु-बलिका कथानक देकर उसके दुष्परिणामको बताया। तत्पश्चात् तीनों गुणव्रतोंका निरूपण किया, जो अत्यन्त संक्षिप्त होते हुए भी अपने आपमें पूर्ण और अपूर्व है। तीसरे आश्वासमें चारों शिक्षाव्रतोंका वर्णन किया गया है। जिसमेंसे बहुभाग स्थान सामायिक शिक्षाव्रतके वर्णनने लिया है । सोमदेवने आप्तसेवा या देवसेवा सामायिक शिक्षाव्रत कहा है । अतएव उन्होंने इस प्रकरणमें स्नपन (अभिषेक),पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान, और श्रुतस्तव इन छह कर्तव्योंका करना आवश्यक बताकर उनका जैसा विस्तारसे वर्णन किया है, वैसा किसी श्रावकाचारमें नहीं मिलेगा। ___ यहाँ यह बात विचारणीय है कि जब समन्तभद्रने देवपूजाको चौथे वयावृत्त्य शिक्षाव्रतके अन्तर्गत कहा है, तब सोमदेवने उसे सामायिक शिक्षा व्रतके अन्तर्गत क्यों कहा? आचार्य जिनसेनने इज्या (पूजा) के भेदोंका वर्णन करते हुए भी उसे किसी व्रतके अन्तर्गत न करके एक स्वतन्त्र कर्त्तव्यके रूपसे उसका प्रतिपादन किया है। देव-पूजाको वैयावृत्त्यके भीतर कहनेकी समन्तभद्रकी दृष्टि स्पष्ट है, वे उसे देव-वैयावृत्त्य मानकर तदनुसार उसका प्रतिपादन कर रहे हैं। पर सोमदेवके कथनके अन्तस्तलमें प्रवेश करनेपर ज्ञात होता है कि अन्य मतावलम्बियोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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