SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २४ ) वर्णनके साथ मिलान करके देखते हैं, तब यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि पुरुषार्थसिद्धयुपायके उक्त विवेचन पर सावयपण्णत्तीका स्पष्ट प्रभाव है । उक्त कथनकी पुष्टिमें अधिक उदाहरण न देकर केवल दो ही उदाहरण देना पर्याप्त होगा । यथा (१) सावयपण्णत्ती - अण्णे उ दुहियसत्ता संसारं परिअटंती पावेण । वावाएयव्वा खलु ते तक्खवणट्टया बिति ॥१३३॥ पुरुषार्थसि ० - बहुदुःखा संज्ञपिता प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इतिवासना कृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥८५॥ (२) सावयपण्णत्ती - सामाइयम्मि उ कए समणो व सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं वहुसा सामाइयं कुज्जा ॥ २९९॥ पुरुषार्थसि ० – रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूल बहुशः सामायिकं कार्यम् ॥ १४८॥ पाठक रेखाङ्कित पदोंसे स्वयं ही समताका अनुभव करेंगे । सावयपण्णत्तीके रचयिता हरिभद्रसूरि बहुश्रुत प्रखर प्रतिभाके धनी एवं अनेकों संस्कृतप्राकृत प्रकरणोंके रचयिता हैं । और उनका समय बहुत ऊहापोहके पश्चात् भट्टाकलंकदेवके समकालिक इतिहासज्ञोंने निश्चित किया है । 'विक्रमार्कशकाब्दीव' इत्यादि श्लोकके आधार कुछ विद्वान् 'विक्रमार्क' पदके आधार पर अकलंकका समय विक्रम संवत् ७०० मानते हैं और कुछ बिद्वान् ‘शकाब्दीय' पदके आधार पर उनका समय शकसंवत् ७०० मानते हैं । जो भी समय अक अंक देवका माना जाय, उसी के आधार पर वे अमृतचन्द्रसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं । अतः उनपर हरिभद्रकी सावयपण्णत्तीका प्रभाव होने में कोई असंगति नहीं है । परिचय और समय पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनेक श्लोक जयसेनाचार्य - रचित 'धर्मरत्नाकर' में ज्योंके त्यों पाये जाते हैं और जयसेनने उसे वि० सं० १०५५ में रचकर समाप्त किया है, इस आधार पर अमृतचन्द्र उनसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। पट्टावलीमें अमृतचन्द्र के पट्टारोहणका समय वि० सं० ९६२ दिया है। इस प्रकार उनका समय विक्रमकी दशवीं शताब्दी निश्चित है । (देखो - तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भा० पृ० ४०५ ) पुरुषार्थसिद्धयुपाय यह आ० अमृतचन्द्रकी स्वतंत्र रचना है। इसके अतिरिक्त अभी हाल में 'लघुतत्त्वस्फोट' नामक अपूर्व ग्रन्थ और भी प्रकाशमें आया है । तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर उसे पल्लवित करके तत्त्वसार रचा है । तथा आ० कुन्दकुन्दके महान् ग्रन्थ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर गम्भीर टीकाएँ लिखी हैं. जिनका आज सर्वत्र स्वाध्याय प्रचलित है । ११. उपासकाध्ययन—सोमदेव श्री सोमदेवसूरिने अपने प्रसिद्ध और महान् ग्रन्थ यशस्तिलकचम्पूके छठे, सातवें और आठवें आश्वासमें श्रावकधर्मका बहुत विस्तारसे वर्णन किया है और इसलिए उन्होंने स्वयं ही उन आश्वासोंका ‘उपासकाध्ययन' नाम रखा है । पाँचवें आश्वासके अन्तमें उन्होंने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy