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________________ ( २३ ) १०. पुरुषार्थ सिद्धघुपाय -आ० अमृतचन्द्र आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके अमरटीकाकार श्री अमृतचन्द्रने पुरुषार्थसिद्धयुपायकी रचना की है। इसमें उन्होंने बताया है कि जब यह चिदात्मा पुरुष अचल चैतन्यको प्राप्त कर लेता है, तब वह परम पुरुषार्थरूप मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो जाता है । इस मुक्तिकी प्राप्तिका उपाय बतलाते हुए उन्होंने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनका साङ्गोपाङ्ग अपूर्व विवेचन किया है । पुनः सम्यग्ज्ञानकी अष्टाङ्ग-युक्त आराधनाका उपदेश दिया । तदनन्तर सम्यक् चारित्रकी व्याख्या करते हुए हिंसादि पापों की सम्पूर्णरूप से निवृत्ति करनेवाले यति और एकदेश निवृत्ति करनेवाले उपासकका उल्लेख कर हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका जैसा अपूर्व वर्णन किया है, वह इसके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता है । उन्होंने बताया है कि किस प्रकार एक मनुष्य हिंसा करे और अनेक मनुष्य उस हिंसा के फलको प्राप्त हों, अनेकजन हिंसा करें और एक व्यक्ति उस हिंसाका फ़ल भोगे । किसीकी अल्प हिंसा महाफलको देती है और किसीकी महाहिंसा अल्प फलको देती है इस प्रकार नाना विकल्पोंके द्वारा हिंसा-अहिंसाका विवेचन उपलब्ध जैन वाङ् मयमें अपनी समता नहीं रखता । जो सम्पूर्ण हिंसाके त्यागमें असमर्थ हैं, उनके लिए एकदेश रूपसे उसके त्यागका उपदेश देते हुए सर्वप्रथम पाँच उदुम्बर और तीन मकारका परित्याग आवश्यक बताया और प्रबल युक्तियों से इनका सेवन करनेवालोंको महाहिंसक बताया और कहा कि इनका परित्याग करनेपर ही मनुष्य जैन धर्म धारण करनेका पात्र हो सकता है । 'धर्म, देवता या अतिथिके निमित्त की गई हिंसा हिंसा नहीं' इस मान्यताका अमृतचन्द्रने प्रबल युक्तियोंसे खंडन किया है । असत्य भाषणादि शेष पापों का मूल हिसा ही है, अतः उसीके अन्तर्गत सर्व पापोंको घटाया गया है । रात्रि भोजनमें द्रव्य और भावहिंसाका सयुक्तिक वर्णनकर अहिंसा व्रतीके लिए उसका त्याग आवश्यक बताकर गुणव्रतों और शिक्षाव्रतोंका सुन्दर वर्णनकर अन्तमें सभी व्रतोंके अतीचारोंका निरूपण किया है । पुनः 'समाधिमरण आत्मवध नहीं' इसका सयुक्तिक वर्णनकर मोक्षके कारणभुत १२ व्रतोंका, समता, वन्दनादि छह आवश्यकोंका, क्षमादि दशधर्मोंका, बाईस परीषहोंके सहनका उपदेश देकर कहा है कि जो व्यक्ति जितने अंशसे सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी और सम्यक् चारित्री होता है, उसके उतने अंशसे कर्म-बन्धन नहीं होता है । किन्तु जितने अंशमें उसके रागका सद्भाव रहता है, उतने अंशसे उसके कर्म- बन्धन होता है । अन्तमें कहा गया है कि उद्यमके साथ मुनि पदका अवलम्बन करके और समग्र रत्नत्रयको धारणकर यह चिदात्मा कृतकृत्य परमात्मा बन जाता है । इस प्रकार चारों पुरुषार्थोंमें प्रधान मोक्ष पुरुषार्थकी सिद्धिका इस ग्रन्थमें उपाय बताकर उसके नामकी सार्थकता सिद्ध की गई है । श्वे॰ सम्प्रदाय में श्रावक धर्मका वर्णन करनेवाले दो ग्रन्थ प्रमुख हैं एक तो 'उपासकदशा सूत्र' जिसकी गणना ११ अंगोंमें की गई है, और जिसे गणधर - प्रथित माना जाता है । और दूसरा ग्रन्थ है हरिभद्रसूरि-रचित 'सावयपण्णत्ती' या श्रावक प्रज्ञप्ति । इसकी स्वोपज्ञ संस्कृत विवृति भी है । उपासक दशाका वर्णन भ० महावीरके उपासकों में प्रधान आनन्द श्रावक आदिके व्रत ग्रहण आदिके रूपमें है । किन्तु सावयपण्णत्तीमें श्रावकधर्मका क्रय-पूर्वक वर्णन है । जब हम पुरुषार्थसिद्धयुपाय के विविध नय- गहून हिंसा-अहिंसा के विवेचनको सावयपण्णत्तीके हिंसा-अहिंसा-विषयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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