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________________ गर्भान्वयी क्रियाओंके ५३ भेदोंका विस्तृत वर्णन ३८ वें पर्वमें किया गया है। दीक्षान्वयी क्रियाओंका वर्णन ३९ वें पर्वमें किया गया है। व्रतोंका धारण करना दीक्षा है। यह व्रतोंका धारण अणुव्रत और महाव्रत रूपसे दो प्रकारका होता है। व्रत-धारण करनेके अभिमुख पुरुषकी क्रियाओं को टीक्षान्वयी क्रिया कहते हैं। इसके अवतार, वृत्तलाभ आदि आठ भेदोंका स्वरूप-निरूपणकर भरत सम्राट्ने इनका उद्देश्य कुलक्रमागत मिथ्यात्व छुड़ाकर सम्यक्त्वी और व्रती होना बताया। पुनः अतिनिकट भव्य पुरुषको प्राप्त होनेवाली कन्वयी क्रियाओंका वर्णन किया। इनके अन्तर्गत सज्जातित्व, सद्-गृहित्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, आर्हन्त्य और निर्वति ( मुक्तिप्राप्ति ) रूप सात परम स्थानोंका जो वर्णन चक्रवर्तीने किया उसे भी ३९ वें पर्वमें निबद्ध किया गया है। सद्-गृहित्व क्रियाका वर्णन करते हए यह आशंका की गई है कि कृषि आदि पट् कमर्सि आजीविका करनेवाले गृहस्थोंके हिंसा पापका दोष तो लगेगा ही। फिर उसकी शुद्धि केसे होगी? इसके उत्तर में बताया गया कि पक्ष, चर्या और साधनके अनुष्ठानसे हिंसादि दोषोंकी शुद्धि होती है। सम्पूर्ण हिंसादि पापोंकी निवृत्तिका लक्ष्य रखना पक्ष कहलाता है । अहिंसादि व्रतोका धारण करना चर्या है और जीवनके अन्तमें समाधिसे मरण करना अर्थात् संन्यास या सल्लेखनाको स्वीकार करना साधन है। __ उपर्युक्त तीनों प्रकारकी क्रियाओंके जिन मंत्रोंका विधान आदि चक्रीने किया उनका वर्णन महापुराणके ४० वें पर्वमें निबद्ध किया गया है। इस प्रकार बनाये गये ब्राह्मणका उपनयन संस्कार करते समय अणुव्रत, गुणव्रत और शीलादिसे संस्कार करनेका तथा व्रतावतरण क्रियाके समय मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बरक त्यागका उपदेश दिया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस सारे ब्राह्मण सृष्टिके समय श्रावकके व्रतोंका किञ्चिन्मान भी स्वरूप-निरूपण आ० जिनसेनने इन तीनों पर्वोमेंसे कहीं पर भी नहीं किया है । ये तीनों ही पर्व क्रियाकाण्ड औः उनके मंत्रोंसे भरे हुए हैं।। आ० जिनसेनके सामने उक्त क्रियाकाण्डके वर्णनका क्या आधार रहा है ? इस आशंकाका समाधान उन्होंने औपासिकसूत्र,' श्रावकाध्याय-संग्रह, आदिका उल्लेखकर किया है। परिचय और समय आ० जिनसेनने जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ के फाल्गुन शुक्ल १० के दिन पूर्ण किया है और उसके पश्चात् महापुराणकी रचना की है। इससे महापुराणका रचनाकाल शक सं० ७६०७७० के मध्य होना चाहिए । इस प्रकार इनका समय विक्रमकी नवीं शतीका उत्तरार्ध है। __ आ० जिनसेन द्वितीयने महापुराणके अतिरिक्त कालिदासके प्रसिद्ध मेघदूत काव्यके पद्योंके पाद-पूतिके रूपमें 'पार्वाभ्युदय' नामक एक महाकाव्यकी भी रचना की है। तथा गुणधराचार्यविरचित सिद्धान्त ग्रन्थ कसायपाहुडके ऊपर वीरसेनाचार्य-द्वारा रचित जयधवला-टीकाके शेष अंशको आपने ही पूर्ण किया है, जो कि ४० हजार श्लोक प्रमाण है और जिससे वे सिद्धान्त ग्रन्थों के महान् वेत्ता सिद्ध होते हैं। १. महापुराण पर्व ३८ श्लोक ३४ । भा० १. पृ० ३० । " , ५०। , , ३३ । २. " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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