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सिद्ध होते हैं । तदनुसार इनका समय विक्रमकी आठवीं-नवमी शताब्दीका मध्यवर्ती काल सिद्ध होता है।
वराङ्गचरितके अतिरिक्त इनकी अन्य किसी रचनाका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है ।
८. हरिवंशपुराण --आ० जिनसेन प्रथम
आ० जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणके ५८वें सर्ग में श्रावकधर्मका वर्णन तत्त्वार्थ सूत्रके सातवें अध्यायको सामने रखकर तदनुसार ही किया है। हाँ इसमें पापोंका स्वरूप पुरुषार्थ सिद्धयुपाके समान बताकर अहिंसादि पाँचों अणुव्रतोंका स्वरूप कहा है। साथ ही रत्नकरण्ड श्रावकाचारके समान गुणव्रतों और शिक्षाव्रतोंका स्वरूप कहा है। भेद केवल इतना है कि तत्त्वार्थसूत्रसम्मत ही गुणव्रत और शिक्षाव्रतके भेद कहे हैं । व्रतोंके अतीचार भी तत्त्वार्थसूत्र सम्मत कहे हैं, परन्तु प्रत्येक अतीचारका स्वरूप भी संक्षेपसे दिया है । पाँचों अनर्थदण्डों का स्वरूप रत्नकरण्डके समान कहा है । इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के समान आठ मूलगुणोंका कोई उल्लेख नहीं किया है । किन्तु भोगोपभोग - परिमाण शिक्षाव्रतमें मद्य, मांस, मधु, द्यूत, वेश्यासेवन और रात्रिभोजनके त्यागका विधान अवश्य किया है । पाँचों व्रतोंकी भावनाएँ भी तत्त्वार्थसूत्रके सदृश कही हैं और मैत्री आदि भावनाओंका भी वर्णन किया है । -
परिचय और समय
आ० जिनसेनने अपना हरिवंशपुराण शक सं० ७०५ में लिखकर पूर्ण किया है, अतः इनका समय विक्रमकी आठवीं शताब्दीका मध्यभाग निश्चित है ।
हरिवंशपुराण- गत उक्त श्रावकधर्मका वर्णन प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भाग में परिशिष्टके अन्तर्गत दिया गया है ।
९. महापुराण - आ० जिनसेन द्वितीय
आ० जिनसेन ने अपने प्रसिद्ध महापुराणके भीतर ब्राह्मणोंकी सृष्टिका वर्णन और उनके क्रिया काण्डका विस्तृत निरूपण ३८, ३९ और ४० वं पर्वमें किया है । इन तीनों पर्वोका संकलन इस श्रावकाचार-संग्रहके प्रथम भागमें किया गया है ।
दिग्विजयसे लौटनेके पश्चात् उनके ( सम्राट् भरत चक्रवर्तीके ) हृदयमें यह विचार जाग्रत हुआ कि मेरी सम्पत्तिका सदुपयोग कैसे हो । मुनिजन तो गृहस्थोंसे धन लेते नहीं हैं । अतः गृहस्थोंकी परीक्षा करके जो व्रती सिद्ध हुए, उनका दानमानादिसे. अभिनन्दन किया और उनके लिए इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया । इज्या नाम पूजाका है । उसके नित्यमह, महामह, चतुर्मुखमह और कल्पद्रुममह भेद बता कर उसकी विधि और अधिकारी बताये । विशुद्धवृत्तिसे कृषि आदिके द्वारा जीविकोपार्जन करना वार्ता है, पुनः दत्तिके चार भेदोंका उपदेश दिया । और स्वाध्याय, संयम एवं तपके द्वारा आत्मसंस्कारका उपदेश देकर उनकी द्विज या ब्राह्मण संज्ञा घोषितकर और ब्रह्मसूत्र ( यज्ञोपवीत ) से चिन्हितकर उनके लिए विस्तार के साथ गर्भान्वयी दीक्षान्वयी और कर्त्रन्वयी क्रियाओंके करनेका जो उपदेश दिया, वही उक्त पर्वोंमें आ० जिनसेनने निबद्ध किया है ।
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