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________________ ( २० ) परिगणित करने पर, तथा वेश्या सेवनमें परस्त्रीको भी ले लेनेपर छह व्यसनोंका निर्देश हो ही गया है । केवल आखेट (शिकार) खेलनेके स्थान पर रात्रिभोजनके त्यागको प्रेरणा की है। इससे यह ज्ञात होता है कि उनके समयमें आखेट खेलनेकी प्रवृत्तिके स्थान में रात्रिभोजनका प्रचार बढ़ रहा था, अतः उसके त्यागका विधान करना उन्होंने आवश्यक समझा । परिचय और समय आ० रविषेणने पद्मचरितकी रचना वीर निर्वाण सं० १२०३ में समाप्त की है। जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है द्विशताभ्यधिके समासहस्रे समतीतेऽर्ध चतुर्थ वर्षयुक्ते । जिनभास्करवर्धमानसिद्धेश्चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥ (पद्मचरित पर्व १२३ श्लो १८२) अर्थात् -- भ० महावीरके मुक्त होनेके पश्चात् १२०३ वर्ष ६ मास बीतने पर मैंने पद्म नामक बलभद्र मुनिका यह चरित रचा । उक्त आधार पर आ० रविषेणने वि० सं० ७३४ में पद्मचरित समाप्त किया । अतः उनका समय विक्रमकी आठवीं शतीका पूर्वार्ध निश्चित ज्ञात होता है। पद्मचरितके अतिरिक्त आ० रविषेणकी अन्य रचनाका कहीं कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । ७. वराङ्गचरित - आ जटासिंहमन्दि आचार्य जटासिंहनन्दिने ' वराङ्गचरित' नामके एक महाकाव्य की रचना की है। उसके पन्द्रहवें सर्गमें श्रावकधर्मका वर्णन आया है, उसे ही प्रस्तुत संग्रहके परिशिष्ट संकलित किया गया है । इसके प्रारम्भमें दयामयी धर्मसे सुखकी प्राप्ति बताकर उसके धारणकी प्रेरणा की गई है तथा गृहस्थोंको दुःखोंसे छूटनेके लिए व्रत, शील, तप, दान, संयम और अर्हत्पूजन करनेका विधान किया गया है। श्रावकके वे ही बारह व्रत कहे गये हैं जिन्हें कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है । इसमें देवताकी प्रीति के लिए, अतिथिके आहार के लिए, मंत्रके साधन के लिए, औषधिके बनाने के लिए और भयके प्रतीकारके लिए किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करनेको अहिंसाणुव्रत कहा गया है। प्रातः और सायंकाल शरण, उत्तम और मंगल स्वरूप अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्मको नमस्कार पूर्वक उनके ध्यान करनेको, सर्व प्राणियोंपर समता भाव रखनेको, संयम धारणकी भावना करनेको और आत- रौद्रभावोंके त्यागको सामायिक व्रत कहा है । जीवनके अन्तमें सभी बहिरंग अन्तरंग पारेग्रहका त्यागकर और महाव्रतोंको धारण कर शरीर त्यागको सल्लेखना शिक्षाव्रत कहा है । अन्तमें बताया है कि जो विधिसे उक्त व्रतोंका पालन करते हैं वे सौधर्मादि कल्पोंमें उत्पन्न होकर और वहाँसे आकर उत्तम वंशमें जन्म लेकर दीक्षित हो कर्म नष्ट कर परम पदको प्राप्त होते हैं । परिचय और समय यद्यपि वराङ्गचरितके अन्तमें आ० जटासिह्नन्दिने अपने परिचय और समयके विषय में कुछ भी नहीं लिखा है, तो भी उद्योतन सूरिने 'कुवलयमाला' में, जिनसेन प्रथमते 'हरिवंशपुराण' म और जिनसेन द्वितीयमें 'महापुराण' में इनका उल्लेख किया है, अतः ये उक्त आचार्योंसे पूर्ववर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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