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________________ मूलगुणोंका उल्लेख कर कहा है कि पंच उदुम्बरोंके साथ तीन मकारका त्याग तो बालकों और मूोंमें भी देखा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि यथार्थ मूलगुण तो पंच अणुव्रतोंके साथ मद्य, मांस और मधुके त्याग रूप ही हैं। इन आठ मूलगुणोंके धारणका महान् फल बतलाते हुए पाँचों स्थूल पापों और तीनों मकारोंके त्यागका विशद सुफल-दायक स्वरूप निरूपण किया है । व्यसनोंके त्यागका, रात्रिभोजन त्यागके सुफलका, पंचनमस्कार मंत्रके जपनेका, अष्टमी आदि पर्वोमें सिद्धभक्ति आदि करनेका, त्रिकाल वन्दना-करनेका, एवं शास्त्रोक्त अन्य भी क्रियाओंके करनेका विधान करके बताया गया है कि व्रतोंमें अतीचार लगनेपर गुरु-प्रतिपादित प्रायश्चित्त लेना चाहिए । चैत्य और चैत्यालय बनवानेका साधुजनोंकी वैयावृत्य करनेका तथा सिद्धान्त ग्रन्थ एवं आचारशास्त्रके बाचने वालोंमें धन-व्यय करनेका, जीर्ण चैत्यालयोंके उद्धार करनेका और दीन-अनाथजनोंको भी दान देनेका विधान किया है । परिचय और समय रत्नमालाके प्रारम्भमें ही स्वामी समन्तभद्रका जिन शब्दोंमें स्मरण किया गया है और इसके अन्तिम पदमें जिस प्रकार श्लेष रूपसे 'शिवकोटि' पद दिया गया है, उससे यह निर्विवाद सिद्ध है कि इस रत्नमालाके रचयिता शिवकोटि राजा स्वामी समन्तभद्रसे बहुत अधिक प्रभावित थे। समन्तभद्र के द्वारा चन्द्रप्रभजिनकी स्तुति करते हुए चन्द्रप्रभजिनबिम्ब प्रकट हुआ देखकर उससे प्रभावित एवं दीक्षित हुए शिष्यका उल्लेख जो शिलालेखोंमें, तथा विक्रान्त कौरव आदिमें पाया जाता है, उसके आधार पर प्रस्तुत रत्नमालाके रचयिता उन्हीं शिवकोटिके मानने में कोई सन्देह नहीं रहता। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने भी 'समन्तभद्रके इतिहासमें' इस तथ्यको स्वीकार किया है। (देखो पृष्ठ ९५-९६) इसलिए समन्तभद्रका जो विक्रमकी दूसरी शती समय है, वही शिवकोटिका भी समझना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शिवकोटिने समन्तभद्र और सिद्धसेनके सिवाय अन्य किसी भी आचार्यका स्मरण नहीं किया है। शिवकोटिकी किसी अन्य रचनाका कहीं कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं हुआ है। ६. पद्मचरित--आ० रविषण जैन समाजमें पद्मपुराणसे प्रसिद्ध पद्मचरितकी रचना आ० रविषेणने की है। इसके चौदहवें पर्वमें श्रावक धर्मका वर्णन आया है, उसे प्रस्तुत संग्रहके तीसरे भागके परिशिष्टमें सानुवाद दिया गया है । यद्यपि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतके रूपमें श्रावकके १२ व्रतोंका वर्णन किया गया है, तथापि उन्होंने अनर्थदंड विरति, दिग्व्रत और भोगोपभोग संख्यान ये तीन गुणव्रत, तथा सामायिक, प्रोषधानशन, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं। अन्तमें मद्य, मांस, मधु, द्यूत, रात्रिभोजन और वेश्यासंगमके त्यागका विधान किया है। ___ उनके इस संक्षिप्त वर्णनसे दो बातें स्पष्ट हैं-गुणव्रतों और शिक्षाव्रतोंकी विभिन्नता और मूलगुणों या सप्त व्यसनोंका कोई उल्लेख न करके मद्यादि छह निन्द्य कार्योंके त्यागका विधान । इससे ज्ञात होता है कि उनके समय तक पंच उदुम्बर फलोंके भक्षणका, तथा द्यूत और वेश्यासंगमके सिवाय शेष व्यसनोंके सेवनका कोई प्रचार नहीं था। अथवा सात व्यसनोंमें तीन मकारोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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