SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७५ ३०१ का विस्तारसे वर्णन किया। बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन गणधर-ग्रथित माने जाने. वाले श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रके अनुसार किया गया है और उसकी गाथाओंका ज्यों-का-त्यों अपने श्रावकाचारमें संग्रह कर लिया है। उनकी विगत इस प्रकार हैश्रावक-प्रतिक्रमणसूत्र-गाथाङ्क वसुगन्दि श्रावकाचार-गाथाङ्क १ दर्शन प्रतिमा , , ५७, २०५ २ व्रत प्रतिमा ॥ ॥ २०७ सामायिक " " ४ प्रोषध २८० ५ सचित्त त्याग २९५ ६ रात्रि भक्त २९६ ७ ब्रह्मचर्य २९७ ८ आरम्भव्यता , २९८ ९ परिग्रह त्याग , २९९ १० अनुमति त्याग , ३०० ११ उद्दिष्ट त्याग , , यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि आचार्य वसुनन्दिने श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रकी ग्यारहवीं गाथा छोड़ दी है, जो कि इस प्रकार है णवकोडीसु विसुद्ध भिक्खायरणेण भुजदे भुन्ज । जायणरहियं जोग्गं एयारस सावओ सो दु॥ अर्थात्-जो भिक्षावृत्तिसे याचना-रहित और नौ कोटिसे विशुद्ध योग्य भोजनको करता है, वह ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक है। ___ इस गाथाको क्यों छोड़ दिया ? इसका उत्तर यह है कि उन्हें इस प्रतिमाधारीके दो भेद बतलाना अभीष्ट था और उक्त गाथामें दो भेदोंका कोई संकेत नहीं है। इस श्रावकाचारमें जिन पूजन और जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठाका विस्तारसे वर्णन किया गया है और धनियाँके पत्ते बराबर जिनभवन बनवाकर सरसोंके बराबर प्रतिमा-स्थापनका महान् फल बताया गया है । इस कथनको परवर्ती अनेक श्रावकाचार-रचयिताओंने अपनाया है। भाव पूजनके अन्तर्गत पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका भी विस्तृत वर्णन किया गया है। अष्ट द्रव्योंसे पूजन करनेके फलके साथ ही छत्र, चमर और घण्टा-दानका भी फल बताया गया है। विनय और वैयावृत्य तपका भी यथास्थान वर्णनकर श्रावकोंको उनके करनेकी प्रेरणा की गई है। परिचय और समय आचार्य वसुनन्दिने प्रतिष्ठा संग्रहकी रचना और मूलाचारको टीका संस्कृतमें की, तथा प्रस्तुत श्रावकाचारको प्राकृतिक भाषामें रचा है, उससे सिद्ध है कि ये दोनों ही भाषाओंके विद्वान् थे। वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचारके अन्तमें जो प्रशस्ति दी है उसके अनुसार उनके दादा गुरुने 'सुदंसणचरिउ' की रचना वि० सं० ११०० में पूर्ण की है। उन्होंने जिन शब्दोंमें अपने दादा गुरुका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy