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________________ - कुन्दकुन्द श्रावकाचार यदन्यदपि सद्वस्तु प्राप्नोति हृदयेप्सितम् । जीवः स्वर्गापवर्गादि तत्सर्व धर्मसञ्चयात ॥१२ वानशीलतपोभावै दभिन्नैः स दृश्यते । कार्यस्ततः स एवात्र मुक्तैर्यत्कारणं मतम् ॥१३ श्रेष्ठो मे धर्म इत्युच्चैते कः कोऽत्र नोद्धतः । भेवो न ज्ञायते तस्य दूरस्थैराननिम्बवत् ॥१४ मायाहङ्कारलज्जाभिः प्रत्युपक्रिययाथवा । यत्किञ्चिद्दीयते दानं न तद्धर्मस्य साधनम् ॥१५ असद्भयोऽपि च यद्दानं तन्न श्रेयस्करं विदुः । दुग्धपानं भुजङ्गानां जायते विषवृद्धये ॥१६ प्रसिद्धिर्जायते पुण्यान्नदानाद्यत्प्रसिद्धये। कैश्चिद्वितीर्यते दानं तज्नेयं व्यसनं बुधैः ॥१७ यज्ज्ञानाभययोरत्र धर्मोपष्टम्भवस्तुनः । यच्चानुकम्पया वानं तदेव श्रेयसे भवेत् ॥१८ स विवेकधुरोद्धारपोरेयो यः स्वमानसे। विरक्तहृदयो वेत्ति ललनां शृङ्गलामिव ॥१९ आस्तां सर्वपरित्यागालङ्कृतस्य महामुनेः । गहिणोऽपि हितं ब्रह्म लोकद्वयसुखैषिणा ॥२० तियंग्देवासुरस्त्रीश्च परस्त्रों चापि यस्त्यजेत् । सोऽपि धीमान् सदा तुङ्गो यः स्ववाररतिः सदा ॥२१ तनौ यदि नितम्बिन्याः प्रमादाद दृग् पतत्यहो। चिन्तनीया तदैवात्र मलमूत्रादिसंस्थितिः ॥२२ अन्य जो भी मनोवांछित उत्तम वस्तु जीव प्राप्त करता है तथा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्त होता है, वह सब धर्मके संचयसे ही प्राप्त होता है ॥१२॥ वह धर्म-दान, शील, तप और भावनाओंके विभिन्न भेदोंके द्वारा प्राप्त होता हुआ देखा जाता है, इसलिए मनुप्यको इस लोकमें वही यह धर्म उपार्जन करना चाहिए, क्योंकि यह धर्म ही मुक्तिका कारण माना गया है ॥१३॥ मेरा धर्म श्रेष्ठ है; इस प्रकार उच्च स्वरसे कौन उद्धत पुरुष यहाँ पर नहीं बोलता है ? सभी लोग चिल्ला-चिल्ला करके कहते हैं कि मेरा ही धर्म श्रेष्ठ है। किन्तु वे लोग उस धर्मका भेद नहीं जानते हैं। जैसे कि दूरवर्ती पुरुषोंके द्वारा आम और नीम वृक्षका भेद ज्ञात नहीं होता है ॥१४॥ ___ अब ग्रन्थकार दानका वर्णन करते हैं-मायाचार, अहंकार और लोक-लाजसे अथवा प्रत्युपकारकी भावनासे जो कुछ दिया जाता है, वह दान धर्मका साधक नहीं है ॥१५॥ दुर्जन पुरुषोंको भी जो दान दिया जाता है, ज्ञानीजन उसे भी श्रेयस्कर नहीं मानते हैं। क्योंकि भुजंगोंको दूध पिलाना विषकी वृद्धिके लिए हो होता है ॥१६|| 'पुण्य-कार्यसे प्रसिद्धि होती हैं ऐसा जानकर जो प्रसिद्धिके लिए अन्नदान आदि कितने ही लोगोंके द्वारा वितरित किया जाता है, वह दान ज्ञानीजनोंको व्यसन जानना चाहिए ॥१७॥ जो ज्ञान दान और निर्भयताका कारण अभयदान तथा इस लोकमें धर्म-साधक वस्तुका दान दिया जाता है और जो अन्नादिका दान करुणाभावसे दिया जाता है, वही दान कल्याणके लिए होता है ॥१८॥ अब ग्रन्थकार ब्रह्मचर्यरूप शीलका वर्णन करते हैं-वह पुरुष विवेकरूप धुराके उद्धार करनेमें अग्रणी है, जो विरक्तचित्त पुरुष अपने मनमें स्त्रीको संसारमें बांधनेवाली सांकलके समान जानता है ॥१९॥ सर्वपरिग्रहके त्यागसे अलंकृत महामुनिका ब्रह्मचर्य तो दूर ही रहे, किन्तु दोनों लोकोंमें सुखके इच्छुक मनुष्यको गृहस्थका स्वदार-सन्तोषरूप ब्रह्मचर्य भी हित-कारक जानना चाहिए ॥२०॥ जो बुद्धिमान् पुरुष सदा अपनी स्त्रीमें सन्तोषके साथ रति रखता है और जो तियंचनी, देवी, असुर स्त्री तथा परपुरुषकी स्त्रीका त्याग करता है, वह मनुष्योंमें सदा ही सर्वश्रेष्ठ है ।।२१॥ अहो भव्यपुरुषो, यदि कदाचित् प्रमादसे भी स्त्रीके शरीरपर दृष्टि पड़ जाय, तो उस समय उसके शरीरमें मल-मूत्र आदि घृणित वस्तुओंका अवस्थान चिन्तन करना चाहिए ।।२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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