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________________ १२० बावकाचार-संग्रह अशानास्परमानन्दो लोकोऽयं विषयोन्मुखः । अदृष्टनगरैामः पामरैरुपवयते ॥२३ परानन्दसुखस्वादी विषय भिभूयते । जाङ्गली जनिष्कम्पः किं सपँरुपसर्म्यते ॥२४ रसत्यागतनुक्लेश ऊनोवयंमभोजनम् । लीनतावृत्तिसक्षेपस्तपः षोढा बहिभंवम् ॥२५ प्रायश्चित्तं शुभं ध्यानं स्वाध्यायो विनयस्तथा । वैयावृत्त्यमथोत्सर्गस्तपः षोढान्तरं भवेत् ॥२६ दुःखव्यूहाय हाराय सर्वेन्द्रियसमाधिना । आरम्भपरिहारेण तपस्तप्येत शुद्धधीः ॥२७ पूजालाभप्रसिद्धयर्थ तपस्तप्येत योऽल्पधीः । शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम् ॥२८ विवेकं विना यच्चस्यात्तत्तपस्तनुतापकृत् । अज्ञानकष्टमेवेदं न भूरिफलदायकम् ॥२९ दृष्टिहीनस्य पङ्गोश्च संयोगे गमनादिकम् । तथा प्रवर्तते ज्ञानं त्रययोगः शिवं तथा ॥३० शरीरं योजितं वित्तं संयोगश्च स्वभावतः । इदमित्थमनित्यत्वाद्धेयं जानाहि सर्वतः ॥३१ शक-चक्रयादयोऽप्येते म्रियन्ते कालयोगतः । तदत्र शरणं यत्तु कः कस्य मरणाद् भवेत् ॥३२ संसारनाटके जन्तुरुत्तमो मध्यमोऽधमः । नटवत्कर्मसंयोगान्नानारूपभ्रंमत्यहो ॥३३ यह इन्द्रियोंके विषयोंके उन्मुख हुआ संसार अज्ञानसे स्त्रीके साथ रमण करनेमें परम आनन्द मानता है। जैसे जिन पामर (दीन हीन किसान) लोगोंने नगरको नहीं देखा है, उनके द्वारा ग्रामको प्रशंसा वर्णनकी जाती हैं ।।२३।। आत्मिक परम आनन्दरूप सुखका आस्वाद लेनेवाला ज्ञानी पुरुष इन्द्रियोंके विषयों द्वारा पराभूत नहीं होता है। विष-हरण करनेवाले मंत्रके जापसे निष्कम्प रहनेवाला पुरुष क्या सांपोंके द्वारा आक्रान्त या पीड़ित होता है ? अर्थात् नहीं होता है ॥२४॥ __ अब ग्रन्थकार तपका वर्णन करते हैं-रसपरित्याग, कायक्लेश, अवमोदर्य, अनशन, लीनता (विविक्तशय्यासन) और वृत्तिपरिसख्यान ये छह प्रकारका बाह्यतप है ।।२५॥ प्रायश्चित्त, शुभध्यान, स्वाध्याय, विनय, वैयावृत्त्य, तथा व्युत्सर्ग ये छह प्रकारका अन्तरंग तप है ॥२६॥ दुःखोंके समूहको दूर करनेके लिए सर्व इन्द्रियोंके निरोधरूप समाधिके द्वारा तथा आरम्भके परिहारसे शुद्ध बुद्धिवाले पुरुषको तप तपना चाहिए ॥२५॥ जो अल्पबुद्धि पुरुष लोक-पूजा, अर्थलाभ और अपनी प्रसिद्धिके लिए तप तपता है, वह अपने शरीरका शोषण ही करता है, उसे उसके तपका कुछ फल नहीं मिलता है ।।२८।। विवेकके बिना जो तप किया जाता है, वह शरीरको ही सन्ताप करनेवाला होता है, वह अज्ञानरूप कष्ट ही है, वह तपके भारी फलोंको नहीं देता है ॥२९॥ जिस प्रकार दृष्टिहीन अन्धे और पंगु पुरुषके संयोग होनेपर गमनादि कार्यका होता है. उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका योग शिव-पदका दायक होता है.॥३०॥ . अब ग्रन्थकार बारह भावनाओंका वर्णन करते हैं कर्मोदयके स्वभावसे जो यह शरीर उपार्जित धन और कुटुम्बका संयोग मिला है. और जिसे मनुष्य नित्य समझता है, वह सब विचार करनेपर अनित्य है, ऐसा सर्व प्रकारसे जानना चाहिए। यह अनित्य भावना है ॥३१॥ जब ये इन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुष भी कालके योगसे मरते हैं, तब इस संसारमें मरणसे बचानेके लिए कौन किसका शरण हो सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं। यह अशरण भावना है ॥३२॥ इस संसाररूप नाटकमें यह प्राणी कर्मके संयोगसे कभी उत्तम, कभी मध्यम और कभी अधम इन नानारूपोंसे भ्रमण करता है, यह आश्चर्य है। यह संसार भावना है ।।३३।। निश्चयसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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