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________________ अथ दशमोल्लासः प्रत्यक्षमन्तरं श्रुत्वा दृष्ट्वा वा पुण्य-पापयोः । सदेव युज्यते कतुं धर्म एव विपश्चिता ॥१ पिग्मूढा जन्मिनो जन्म गमयन्ति निरर्थकम् । धर्माधिष्ठानविकलं सुप्ता इव तपस्विनी ॥२ नृपवित्तधनस्नेहवेहदुष्टजनायुषाम् । विघ्नं विषटमानानामस्त्यतो धर्ममाचरेत् ॥३ धर्मोऽस्त्येव जगज्जैत्रः परलोकोऽस्ति निश्चितः । देवोऽस्ति तत्त्वमस्त्येव सत्त्वं नास्ति तु केवलम् ॥४ कुगुरोः कुक्रियातश्च प्रत्यूहात्कालदोषतः । न सिद्धयन्त्याप्तवाचश्चेत्तत्तासां किमु वाच्यते ॥५ अनल्पकुविकल्पस्य मनसः स्थिरता नृणाम् । न जायते ततो देवाः कुतः स्युस्तद्वशंवदाः ॥६ बागताऽप्यन्तिकं सिद्धिविकल्पैर्नीयते यतः । अनादरवतां पार्वे कथं को वाऽवतिष्ठते ॥७ विश्वश्लाघ्यं कुलं धर्माद्धर्माज्जातिमनोरमा । काम्यं रूपं भवेद्धर्माद्धर्मात्सौभाग्यमद्धतम् ॥८ निरोगत्वं भवेद्धर्माद्धर्माद्दध्य [च जीवनम् ] | धर्मादर्थो भवेद् भोग्यो धर्माज्ज्ञानं वपुष्मताम् ॥९ मेघवृष्टिर्भवेद् धर्माद्धर्माद्दिव्यश्च सिद्धयः । धर्मान्मुद्रां समुद्रश्च तनोत्युच्छङ्खलो जलैः ॥१० धर्मप्रभावतो याति नरकीर्तो रसातलम् । धर्मार्थकाममोक्षाणां सिद्धिधर्माच्च वर्तते ॥११ पुण्य और पापका प्रत्यक्ष अन्तर सुनकर, अथवा देखकर विद्वान् पुरुषको सदैव धर्म ही करना योग्य है ।।१।। जो मूढ पुरुष इस मनुष्य जन्मको सोती हुई तपस्विनीके समान धर्माचरणसे रहित निरर्थक गंवाते हैं, उन्हें धिक्कार है ॥२॥ राजाओंका वैभव, धन-धान्यका स्नेह, शरीरकी दुष्टता और प्राणियोंकी आयु इन सब विघटित होनेवाली वस्तुओंके विघ्न होता ही है, इसलिए मनुष्यको धर्मका आचरण करना ही चाहिए ॥३॥ धर्म जगत्का जीतनेवाला है ही, परलोक है, यह बात भी निश्चित है, देव है और तत्त्व भी हैं ही । केवल तुम्हारी सत्ता ही वर्तमान रूपमें सदा नहीं रहनेवाली है ।।४।। कुगुरुके निमित्तसे, खोटी क्रियाओंके आचरणसे, विघ्नों और कलिकालके दोषसे यदि आप्तके वचन सिद्ध नहीं होते हैं, तो उनकी क्या निन्दा की जा सकती है ? अर्थात् नहीं की जा सकती ॥५॥ मनुष्योंके बहुत संकल्प और खोटे विकल्प वाले मनकी यदि स्थिरता नहीं होती है, तो इससे देव उनके वशंवद ( इच्छानुसार बोलनेवाले ) कैसे होंगे ? अर्थात् जब मनुष्योंके मनमें स्थिरता नहीं, तब देवता उनको इच्छानुसार कसे कार्य करेंगे ॥६॥ इससे समीपमें आई हुई भी सिद्धि मनुष्योंके नाना विकल्पोंके द्वारा अन्यत्र ले जायी जाती है। ठोक ही हैअनादर करनेवाले पुरुषोंके पासमें कोन ठहरता है ? कोई भी नहीं ठहरता ॥७॥ धर्मसे सभीके द्वारा प्रशंसनीय कुल प्राप्त होता है, धर्मसे मनोरम जाति प्राप्त होती है, धर्मसे मनोवांछित सुन्दररूप प्राप्त होता है और धर्मसे आश्चर्यजनक सौभाग्य प्राप्त होता है । धर्मसे शरीरमें निरोगता रहती है, धर्मसे दीर्घ जीवन प्राप्त होता है, धर्मसे भोगने योग्य धन मिलता हैं और धर्मसे ही शरीर-धारियोंको ज्ञान प्राप्त होता है॥९॥ धर्मसे समय पर मेघ वृष्टि होती है, धर्मसे दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती है और धर्मसे जलके द्वारा उद्वेलित समुद्र भी प्रशान्त मुद्राको धारण कर लेता है ।।१०॥ धर्मके प्रभावसे मनुष्यको कीत्ति समस्त भूतल पर है और धर्मसे ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोकी सिद्धि होती है ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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