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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार प्रोक्ष्या पापान्मलो पापात्पापाविषयलोलुपः । दुभंगः पुरुषः पापात्षण्डः पापाच्च दृश्यते ॥१३ जायते नारकस्तियंगकुलोनोऽपि च मूढधीः। चातुर्वर्यफलैबन्ध्यो रोगग्रस्तश्च पापतः ॥१४ यदन्यदपि संसारे जीवः प्राप्नोत्यसुन्दरम् । तत्समस्तं मनो-दुःखहेतुः पापविजृम्भितम् ॥१५ इति गदितमथादौ कारणं पातकस्य प्रतिफलमपि तस्य श्वभ्रपातादिदुःखम् । सकलसुखसमूहं प्राप्तिकाममनुष्यमनसि न खलु धार्यः पापहेतूपदेशः ॥१६ इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामिविरचिते श्रावकाचारे जन्मचर्यायां पापोत्पत्तिकारणो नाम नवमोल्लासः । है पापसे मनुष्य कोढ़ी होता है, पापसे अस्पष्ट वचन बोलनेवाला होता है, पापसे मूक (गूंगा) होता है और पापसे मनुष्य निर्धन होता है ॥१२॥ पापसे मनुष्य तिरस्कार एवं बहिष्कारके योग्य होता है, पापसे मलिन होता है, पापसे विषय-लोलुपी होता है, पापसे पुरुष दुर्भागी होता है और पापसे मनुष्य नपुंसक हुआ देखा जाता है ॥१३॥ पापसे यह जीव नारकी, तियंच, अकुलीन और मूढ़ बुद्धि होता है। पापसे ही यह जीव धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चतुर्वर्गके फलसे रहित होता है और पापसे ही यह रोगोंसे ग्रस्त रहता हैं ।।१४।। इस संसारमें जो कुछ भी असुन्दर वस्तुएं हैं उन सबको यह जीव पापके उदयसे ही पाता है । मनमें दुःख उत्पन्न करनेके जितने भी हेतु हैं, वे समस्त पापके ही विस्तार समझना चाहिए ॥१५॥ इस प्रकार मैंने पापके आदि कारण कहे। इस पापका प्रतिफल भी अति दुष्ट नरक-पात आदि जानना चाहिए। अतएव सर्व सुख-समूहको पानेके इच्छुक मनुष्योंको पापके कारणोंका उपदेश मनमें भी नहीं धारण करना चाहिए ।।१६।। इस प्रकार कुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारमें श्रावकचर्याके अन्तर्गत पापोत्पत्तिके कारणोंका वर्णन करनेवाला नवम उल्लास समाप्त हुआ।।९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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