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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
कालकृत्यं न मोक्तव्यमतिखिन्नैरपि ध्रुवम् । नाप्नोति पुरुषार्त्तानां फलं क्लेशजितः पुमान् ॥३८६ उच्चैर्मनोरथाः कार्याः सर्वदैव मनस्विना । विधिस्तदनुमानेन सम्पदे यतते यतः ॥३८७ कुर्यान्न कर्कशं कर्म क्षमाशालिनि सज्जने । प्रादुर्भवति सप्ताचिर्मथिताच्चन्दनादपि ॥३८८ दृष्ट्वा चन्दनतां यातान् शाखोटादीनपि द्रुमान् । मलयाद्रौ तत. कार्या महद्भिः सह सङ्गतिः ॥ ३८९ शुभोपदेशतारुचयो वृद्धा वा बहुश्रुताः । कुशला यः स्वयं हन्ति त्रायते स कथं परम् ॥३९० शौर्येण वा तपोभिर्वा विद्यया वा धनेन वा । अत्यन्तमकुलीनोऽपि कुलीनो भवति क्षणात् ॥ ३९१ कुर्याच्च नात्मनोमृत्युमायासेन गरीयसा । ततश्चेदवपातः स्याद दुःखाय महते तदा ॥ ३९२ दैविकैर्मानुषैर्दोषैः प्रायः कार्यं न सिद्धयति । दैविकं वारयेच्छान्त्या मानुषं सुधिया पुनः || ३९३ प्रतिपन्नस्य न त्यागः शोकश्च गतकस्य न । निद्राच्छेदश्च कस्यापि न विधेयः कदाचन ॥ ३९४ अकुर्वन् बहुभिर्वैरं दद्यादृहुमते मतम् । गतस्वादानि कृत्यानि कुर्याच्च बहुभिः समम् ॥ ३९५ शुभक्रियासु सर्वाषु मुख्यैर्भाव्यं मनीषिभिः । नराणां कपटेनापि निःस्पृहत्वं फलप्रदम् ॥३९६ द्रोहप्रयोजने नैव भाव्यमत्युत्सुकैर्नरैः । कदाचिदपि कर्तव्यः सुपात्रेषु न मत्सरः ॥ ३९७ स्वजातिकष्टं नोपेक्ष्यं तदैक्यं कार्यंमादरात् । मानिनो मानहानिः स्यात्तद्दोषादयशोऽपि च ॥ ३९८
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अत्यन्त खेद - खिन्न होनेपर भी पुरुषोंको उचित कालमें करनेके योग्य जो कर्तव्य है, उसे निश्चयसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि क्लंशसे पराजित होनेवाला पुरुष अपने पुरुषार्थोंका कभी फल नहीं पाता है || ३८६|| मनस्वी पुरुषको सर्वदा ही ऊँचे मनोरथ करना चाहिए। क्योंकि उसके अनुमान से किया गया कार्य-विधान सम्पत्तिके लिए प्रयत्नकारक होता है ||३८७|| क्षमाशाली सज्जन पुरुषपर कभी भी कर्कश कार्य नहीं करना चाहिए । शीतल स्वभावी चन्दनके भी मथन ( रगड़) से अग्नि उत्पन्न हो जाती है || ३८८ || मलयाचलपर चन्दन वृक्षकी संगति पाकर शाखोट आदि वृक्षोंके भी चन्दनपना देख करके मनुष्यको सदा महापुरुषोंके साथ संगत करनी चाहिए ||३८९ || जो उत्तम शुभ उपदेशमें रुचि रखते हैं, वयोवृद्ध हैं और बहुज्ञानी हैं, वे ही कुशल पुरुष कहलाते हैं (और उनका ही सत्संग करना चाहिए । जो पुरुष स्वयंका विनाश करता है, वह दूसरे पुरुषकी रक्षा कैसे कर सकता है || ३९० ॥ अत्यन्त नीच कुलवाला भी पुरुष शूरवीरतासे, या तपश्चरण करनेसे, या विद्या पढ़नेसे अथवा धनोपाजनसे क्षणभर में कुलोन हो जाता है || ३९१ ।। भारी प्रयास से भी अपने मरनेकी कामना न करे। क्योंकि उससे मनुष्यका अधःपतन ही होता है और तब वह महादुःखके लिए ही होता है || २९२|| दैव-जनित और मनुष्य-कृन दोषोंस प्रायः कार्य सिद्ध नहीं होता है । इसलिए बुद्धिमान् पुरुष देव-जनित दोषोंको तो शान्ति कर्मसे निवारण करे और मनुष्य-कृत दोषोंको अपनी सुबुद्धिसे दूर करे || ३९३ || स्वीकार किये व्रतादिका त्याग न करे और गई हुई वस्तुका शोक भी नहीं करे । तथा किसी भी सोते हुए व्यक्तिका निद्राविच्छेद भी कभी नहीं करना चाहिए || ३९४|| बहुत पुरुषोंके साथ वैरको नहीं करते हुए बहुमतके साथ अपना मत प्रदान करे । तथा विगत-स्वादवाले कार्यों को भी बहुत जनोंके साथ करना चाहिए ॥ ३९५ ॥
मनीषी पुरुषों को सभी शुभ क्रियाओं में प्रमुख होना चाहिए। कपटके द्वारा भी मनुष्योंकी निःस्पृहता फलको प्रदान करती है || ३९६ || अत्यन्त उत्सुक भी मनुष्योंको कभी भी द्रोहकार्यके प्रयोजनमें प्रयत्नशील नहीं होना चाहिए। तथा उत्तम पात्र जनोंपर कभी भी मत्सर नहीं करना चाहिए || ३९७|| अपनी जातिपर आये हुए कष्टकी कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। किन्तु
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